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भगवान श्रीकृष्णबोले- हे प्रिये, जब गुणवती ने सुना कि राक्षस ने उसके पिता और पति को राक्षसने खा लिया है तो वह दुखी होकर जोर-जोर से विलाप करने लगी. वह अपने दुख में जोर-जोर से चिल्लाती कि उसके भोजन, वस्त्र और सुरक्षा का प्रबंध कौन करेगा?
पिता और पति से विहीन स्त्री कैसे अपना जीवन बिताएगी? इसी शोक में विलाप करती हुई और अचेत होकर भूमि पर गिर गई. जब उसकी चेतना लौटी तो किसी तरह घर का सारा सामान बेचकर उसने यथासंभव पिता और पति की पारलौकिक क्रिया कर्म किया.
उसके बाद उसी नगर में रहते हुए इंद्रियों को वश में रखकर भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर होकर शांति से रहने लगी. जीवन के अंतिम समय तक एकादशी और कार्तिक मास के व्रत-स्नानादि नियमपूर्वक करती रही.
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