एक आदमी के प्राण छूटे थे. उसे आभास हुआ कि यमराज उसके पा आ रहे हैं. यमराज के हाथ में एक छोटा सा बक्सा भी था.

यमराज ने कहा- पुत्र चलो अब तुम्हारा समय हो गया है.

व्यक्ति ने पूछा- महाराज, अभी इतनी जल्दी क्यों? अभी तो मुझे बहुत से काम करने हैं. क्षमा चाहता हूं अभी चलने में असमर्थ हूं. बहुत से काम मैंने कर लिए हैं, बस जो अधूरे हैं उन्हें पूरा तो कर लूं फिर चलता हूं आपके साथ. विनती है, मुझे कुछ समय दें भगवन!

यमराज उसकी बात सुनकर हंसते रहे. उन्होंने अपने हाथ में लटक रहे संदूक की ओर देखा और उसे इस प्रकार हिलाया मानो उसका वजन तोल रहे हों. यह देखकर उस व्यक्ति को हैरानी हुई.

उसने पूछा- भगवन! आपके इस संदूक में क्या है जिसे आप तोलकर देख रहे हैं?

यमराज बोले- इसमें तुम्हारा सामान है. तुमने अभी कहा कि बहुत सारे काम पूरे कर लिए हैं कुछ बाकी हैं इसलिए मैं इसे अंदाजे से तोल रहा था.

व्यक्ति की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं. इस छोटे से संदूक में उसका सामान आ गया? उसने यमराज से पूछा कि महाराज इस छोटे से बक्से में मेरा सारा सामान, मेरी कीमती वस्तुएं, मेरे कपड़े, मेरा धन-दौलत सब आ गया?

भगवान ने कहा- पुत्र तुमने जिन वस्तुओं का नाम लिया और जिनके लिए चिंतित हो रहे हो वे वस्तुएं तुम्हारी नहीं हैं. वे तो पृथ्वीलोक की वस्तुएं हैं जो यहां से कहीं ले जाई नहीं जा सकतीं.

व्यक्ति ने पूछा- प्रभु यदि आपके कहे अनुसार मैं चल-अचल वस्तुएं नहीं ले जा सकता. क्या मैं अपनी यादें साथ लेकर चल सकता हूं?

यमराज ने उत्तर दिया- पुत्र तुम वही वस्तु लेकर जा सकते हो जो तुम्हारी हैं. तुम जिन स्मृतियों जिन यादों की बात कर रहे हो वे तो कभी भी तुम्हारी थीं ही नहीं. वे तो समय की थीं. उनपर तो समय का अधिकार है

व्यक्ति ने पूछा- चलिए मान लिया. मैं अपनी बुद्धिमत्ता तो लेकर जा सकता हूं न, क्या इस संदूक में वह रख लिया है आपने?

भगवान यमराज ने कहा- पुत्र वह तो तुम्हारी कभी भी नहीं थीं. वह बुद्धिमता तो परिस्थिति जन्य थी. परिस्थितियों ने तुम्हारे अंदर उसे जन्म दिया.

अच्छा आपकी यह बात भी मान ली. फिर इस संदूक में मेरा परिवार और मेरे मित्र होंगे?

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भगवान ने उत्तर दिया- पुत्र तुम जिन्हें अपना परिवार, अपना संसार कह रहे हो वे तो कभी भी तुम्हारे नहीं थे. वे तो पृथ्वीलोक की राह में मिलने वाले पथिक थे, पथ बदला तो उनसे भी कोई लेना-देना न रहा.

वह सोचने लगा कि क्या हो सकता है इस संदूक में. कुछ विचारकर उसने पुनः पूछा- भगवन! फिर तो निश्चित ही इसमें मेरा शरीर होगा?

यह सुनकर यमराज मुस्कुराने लगे. फिर बोले- वह शरीर तो कभी भी तुम्हारा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो राख है.

“तो क्या यह मेरी आत्मा है?”

“आत्मा तुम्हारी कैसे होने लगी, वह तो मेरी संपत्ति है.” यमराज ने स्पष्ट किया.

भयभीत व्यक्ति ने भगवान यमराज के हाथ से वह संदूक मांग लिया और उसे खोलकर देखा. वह खाली था.

यह देखकर वह आदमी रो पड़ा. उसने भर्राई आवाज में यमराज से कहा- भगवन, इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे पास कभी भी कुछ नहीं था. मैं रिक्त हूं.

यमराज ने उत्तर दिया- यही सत्य है, पुत्र. इस मृत्युलोक पर तुमने क्षण बिताए वही तुम्हारे थे. जिंदगी क्षणिक है और वे ही क्षण तुम्हारे हैं. तुम्हें उन्हें ही आनंद में जीना था. स्वयं आनंदित होना था, दूसरों को आनंद देना था. यहां से कुछ लेकर जा ही नहीं सकते इसलिए बटोरने की मंशा में रहना व्यर्थ था. तुम्हारा कुछ न था, न है और न रहेगा. यदि कुछ जाएगा साथ तो वह पुण्यकर्म.

जो जीवन में सत्कर्म करते हैं मैं प्रसन्नता के साथ स्वयं उनके संदूक में सामान भरता हूं, आदर के साथ विदा करने आता हूं. इस लोक से आगे तो सिर्फ आपके कर्मफल ही जा सकते हैं.

यह एक प्रतीकात्मक कहानी है. कथा का संदेश है कि जो भी समय हमारे पास है, उसे हम भरपूर जियें. हर पल में आऩंद लें, अपने कार्यों से दूसरों को आनंदित करें.

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खुश रहना हमारा अधिकार है और ईश्वर के द्वारा सौंपा गया एक कार्य भी. जीवन का उद्देश्य होना चाहिए- मैं किसी के जीवन के आनंद में बाधक नहीं बनूंगा और किसी को अपने जीवन के आनंद में बाधक नहीं बनने दूंगा.

आनंद से तात्पर्य मन का आनंद है. भौतिक वस्तुएं जिनको प्राप्त करने की होड़ में हम न जाने क्या-क्या तिकड़म करते हैं वे सब यहीं रह जाएंगे.

-राजन प्रकाश

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