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जैसे नदी में पड़े पत्ते और तिनके कुछ दूर साथ चलने के बाद अलग हो जाते हैं वैसे ही हम भी इस संसार में किसी न किसी बंधन से बंधे साथ आते हैं और समय पर अलग हो जाते हैं.
ये उपदेश सुनकर भी चित्रकेतु को शान्ति न मिली. तब नारद ने अपनी शक्ति से उस जीवात्मा का आह्वान किया जो चित्रकेतु का पुत्र बनकर आया था.
नारद ने आत्मा से कहा- तुम्हारे पिता शोक संतप्त हैं. उन्हें धैर्य बंधाओ. यदि तुम चाहो तो मैं पुनः इस शरीर में प्रवेश करा सकता हूं ताकि पुत्र बनकर अपने माता-पिता को सुख दे सको.
आत्मा ने कहना शुरू किया- आप मेरे किस माता-पिता की बात करते हैं. मैंने तो अनगिनत जन्म लिए हैं. मेरे अनेक माता-पिता रहे हैं. मैं किस-किस को प्रसन्न करूं?
इन दोनों शरीरों को मैं आपना माता-पिता कैसे मान लूँ? देह त्यागते ही मेरा इनसे कोई नाता न रहा. मैं किसी का पुत्र नहीं न ही कोई मेरा माता-पिता. मैं इनके घर नहीं आना चाहता.
आत्मा की बात सुनकर चित्रकेतु का मोहभंग हुआ. नारदजी ने राजा को नारायण मन्त्र की दीक्षा दी. चित्रकेतु ने मंत्र का अखंड जप करके नारायण को प्रसन्न किया.
भगवान ने दर्शन देकर एक दिव्य विमान दिया. चित्रकेतु भगवद् दर्शन से चैतन्य होकर सिद्धलोक आदि में भी विचरण करते रहते.
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