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बजरंग बली को तो आशा थी कि भगवान श्रीराम स्वयं उनसे उपहार मांगने को कहेंगे और वह जीवनभर उनके चरणों में बैठने का स्थान मांग लेंगे लेकिन मिल गए कुछ चमकते पत्थर. दुखी मन से उन्होंने वह हार निकाला और उसे उलट-पुलटकर देखने लगे कि शायद इसके भीतर कहीं सियाराम की छवि दिख जाए. उन्होंने हार में जड़े दिव्य रत्नों को दातों से तोड़कर अलग करना शुरू किया और सबकी जांच करने लगे. एक-एक करके सभी रत्नों की जांच की लेकिन उनके आराध्य की छवि कहीं दिखाई नहीं दी. कुछ पलों में ही सारे दिव्य रत्न धूल में लोट रहे थे.

हनुमानजी को ऐसा करते देख सभी आश्चर्य में थे. कानाफूसी होने लगी कि हनुमानजी आखिर हैं तो बंदर. वह क्या समझें दिव्य हार की कीमत. देवी सीता ने हार के लिए सही व्यक्ति का चयन नहीं किया. श्रीराम और देवी सीता भी पवनसुत को हार को नोच-नोचकर फेंकते देख रहे थे. विभीषण हनुमानजी के पास गए और उनसे पूछा- पवनसुत जिस हार के एक-एक रत्न से साम्राज्य खरीदे जा सकते हैं, आप उन्हें नोच-नोचकर क्यों फेंक रहे हैं?
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