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कमलिनी बोली- कलहंस! तुम आकाशमार्ग से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के परिणामवश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखाई देती है.

तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से निकली हुई सुगन्ध को सूँघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोक को प्राप्त हो गये हैं. पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना वैभव–ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ, सुनो.

इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी. उस समय मेरा नाम सरोजवदना था. मैं गुरुजनों की सेवा करती हुई सदा एकमात्र पतिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी.

एक दिन की बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी. इससे पति सेवा में कुछ विलम्ब हो गया. इससे पतिदेव कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया-‘पापिनी! तू मैना हो जा.’ मरने के बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला.

किसी मुनि कन्या ने मेरा पालन-पोषण किया. मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन विभूति योग के नाम से प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी.

विहंगम! काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़ कर दशम अध्याय के माहात्म्य से स्वर्ग लोक में अप्सरा हुई. मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्मा की प्यारी सखी हो गयी.

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