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एक दिन मैं विमान से आकाश में विचर रही थी. उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतर कर ज्योंहि मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्योंहि दुर्वासा मुनि आ धमके. उन्होंने वस्त्रहीन अवस्था में मुझे देख लिया.

उनके भय से मैंने स्वयं ही कमलिनी का रूप धारण कर लिया. मेरे दोनों पैर दो कमल हुए. दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगों के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया. इस प्रकार मैं पाँच कमलों से युक्त हुई.

मुनिवर दुर्वासा ने मुझे देखा उनके नेत्र क्रोधाग्नि से जल रहे थे. वे बोले-‘पापिनी! तू इसी रूप में सौ वर्षों तक पड़ी रह. यह शाप देकर वे क्षण भर में अन्तर्धान हो गये कमलिनी होने पर भी विभूतियोग अध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है.

मुझे लाँघने मात्र के अपराध से तुम पृथ्वी पर गिरे हो, पक्षीराज! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शाप की निवृत्ति हो रही है क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये. मेरे द्वारा गाये जाते हुए. उस उत्तम अध्याय को तुम भी सुन लो. उसके श्रवणमात्र से तुम भी आज मुक्त हो जाओगे.

यह कहकर पद्मिनी ने स्पष्ट तथा सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय का पाठ किया और वह मुक्त हो गयी. उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस कमल को लाकर मैंने आपको अर्पण किया है.

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