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एक बार मैं गंगातट पर टहल रहा था तो मैंने एक पर्वत जैसे बड़े आकार वाला कछुआ देखा. उसका आकार देखकर मैं चकित था.

मैंने उससे कहा- तुम्हारा शरीर तो अचरज में डालने वाला है. हे महान आश्चर्य वाले कछुए, तुम दिन रात पवित्र गंगाजल में रहते घूमते हो. तुम धन्य हो.

मेरी बात सुनकर कछुआ बोला- ऋषिवर मैं आकार में बड़ा हूँ तो इसमें क्या आश्चर्य, और मैं कहां का धन्य हो गया.

धन्य तो माता गंगा हैं जिसने हम जैसे लाखों कछुओं समेत करोडों जीव जंतुओं, वनस्पतियों को अपने भीतर शरण दे रखा है. उससे बड़ा आश्चर्य और धन्य कौन है!

कछुए की बात मुझे भी सही लगी. उससे विदा लेकर मैं सीधा गंगा देवी के पास पहुंचा.

अभिवादन के पश्चात मैंने उनसे कहा- हे देवी आप तपस्वियों की रक्षा करती हैं, परम पवित्र हैं. आप अपनी व्यापकता से आश्चर्यमयी हैं. आप सरिताओं में श्रेष्ठ हैं. आप धन्य हैं.

मेरी इस बात से गंगा देवी कुछ प्रभावित नहीं दिखीं.

वह बोलीं- हे देवताओं के बीच झगड़ा लगाने वाले नारद, मुझमें क्या आश्चर्य? मेरी जैसी सैकड़ों नदियां समुद्र में मिलती हैं. उनका आकार बहुत विशाल है. वह आश्चर्य हैं और धन्य भी.

देवी गंगा कीबात भी अकाट्य थी. सचमुच गंगा एवं अन्य सभी नदियां तो वहां जाकर ही शरण पाती हैं.

अब मैं तत्काल समुद्र के पास पहुंचा. प्रसंग सुनाकर उनसे कहा कि आप धन्य हैं.

समुद्र ने मेरी बात सुनी. उन्होंने धैर्य बनाए रखा बाहर निकलकर आए.

विनम्र भाव से समुद्र ने कहा- मुनिवर, मैं कहां का धन्य हुआ और मुझमें क्या अचरज! अचरज और धन्य तो धरती है जिन्होंने मेरे जैसे कई समुद्रों को अपने ऊपर धारण कर रखा है. धन्य कहे जाने योग्य तो वही हो सकती हैं.

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