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गणेशजी इस बात को मन में गांठ बांधकर बैठ गए कि संसार के सभी जीव मेरी माता के ही अंश है इसलिए वह विवाह नहीं करेंगे.

गणेशजी ने ब्रह्चारी रहने का निश्चय कर लिया. ब्रह्मचारी गणेश गंगा तट पर तपस्या में लीन हो गए.

इसी बीच असुर कुल में जन्मी तेजस्विनी वृंदा जिनका नाम तुलसी भी पड़ा था, अपने लिए योग्य वर की तलाश में निकलीं.

सारे संसार में उन्हें अपने योग्य कोई वर नहीं मिला. घूमते-घूमते तुलसी गंगातट पर पहुँची.

वृंदा ने तप में लीन गणेशजी को देखा तो उन पर मोहित हो गईं. गणेशजी को रिझाने के लिए वृंदा तरह-तरह के स्त्रियोचित प्रयास करने लगीं.

गणेशजी वृंदा के प्रपंच देख रहे थे. उन्हें आश्चर्य़ भी हो रहा था कि यह स्त्री इस प्रकार का आचरण आखिर क्यों कर रही है.

आखिरकार उन्होंने वृंदा से पूछ ही लिया- देवी आप कौन हैं और यहां पर तरह-तरह के स्वांग क्यों रच रही हैं?

वृंदा ने अपना पूरा परिचय बताया. यह भी कहा कि पिता उनके योग्य वर नहीं खोज पाए इसलिए मुझे स्वयं अपने योग्य वर के तलाश में निकलना पड़ा है. सब जगह घूम आई पर कहीं योग्य वर नहीं मिला. आपको देखकर मेरा कार्य पूर्ण हुआ.

मैं आप पर मुग्ध हूं और आपको प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के स्त्रियोचित भंगिमाएं बना रही थी. मैं सर्वगुणसंपन्न हूं. जितनी रूपवती हूं, उतनी ही विचारवान, कार्य-व्यवहार कुशल. मेरे पिता का कहना है कि संसार में मेरे रूप-गुण की बराबरी की स्त्री दूसरी नहींं.

हे पार्वतीनंदन आप मुझसे विवाह कर मुझे कृतार्थ करें. मैं आपको उत्तम पत्नी की तरह हर प्रकार से प्रसन्न रखूंगी.

गणेशजी भी चक्कर में पड़ गए. ब्रह्मचर्य का विचार किया है और आया हूं तप के लिए यहां यह विवाह करना चाह रही है. इसकी बुद्धि फिर गई है, इसे समझा-बुझाकर भेजना होगा.

गणेशजी समझाने लगे- देवी आपके पिता ने अगर आपको सर्वगुणसंपन्न कहा है तो ठीक ही कहा होगा. उस पर कोई तर्क-वितर्क करना उचित नहीं है. परंतु हे देवी किसी ब्रह्मयोगी का ध्यान भंग करना अशुभ होता है.

मैं नो ब्रह्मचारी रहने का विचार किया है. इसलिए अब मैं तपोलीन रहना चाहता हूं. मैं विवाह बंधनों में नहीं बंध सकता. आप जैसी योग्य कन्या के लिए वर की क्या कमी. कोई दूसरा वर खोज लें. मैं विवाह नहीं कर सकता.

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