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गुरु शुक्राचार्य ने छद्मवेषधारी भगवान को पहचान लिया था. वह बलि के पास गए और उन्हें सावधान भी किया कि देवों की सहायता के लिए वामनरूप में स्वयं श्रीहरि सर्वस्व मांगने आए हैं.
बलि बोले- मैं महाराज प्रहलाद का पौत्र हूं. अपने दिए वचन से पीछे नहीं हट सकता. शुक्राचार्य ने बहुत समझाया पर बलि सुनने को राजी न थे. शुक्राचार्य इसे रोकना चाहते थे.
शुक्राचार्य अत्यंत छोटा रूप धारण करके कमंडल के मुँह में समा गए, ताकि संकल्प के लिए जल न निकल पाए. वामन भगवान समझ गए कि यह शुक्रचार्य की चाल है.
उन्होंने अपने हाथ में रखी कुशा को कमण्डल के मुँह में डाल दिया जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई. शुक्राचार्य छटपटाकर कमण्डल से निकले.
क्रोधित शुक्राचार्य ने बलि को शाप दिया कि अपने गुरू की बात नहीं मानने के कारण तुम लक्ष्मीविहीन हो जाओगे.
बलि की पत्नी विद्यावती ने वामनदेव के पैर धोए. बलि ने विधिपूर्वक हाथ में जल लेकर संकल्प का जल छोड़ा और दान को तैयार हुए.
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