एक दिन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी गोपियों के साथ वन में विहार कर रहे थे. संध्याकाल का समय हो रहा था. सूर्य की किरणें छुप चुकी थीं और आसमान में चंद्रमा धीरे-धीरे अपनी चांदनी बिखेर रहने को बढ़ रहे थे.

वन के सुंदरपुष्प भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपनी सुगंध पूरे वन में बिखेर रहे थे ताकि प्रभु आनंद ले सकें. धीमी-धीमी चलती वायु बेला और रजनीगंधा पुष्पों की सुगंध को दूर-दूर तक ले जा रही थी.

प्रभु पुष्पलताओं की अभिलाषा समझ रहे थे. उन्हें भी मस्ती सूझी. प्रभु ने एक राग छेड़ दिया. उनका गायन सुनकर गोपियां मुग्ध हो गईं और नृत्य करने लगीं. जंगल में मंगल छा गया. आनंदमय वातावरण में विघ्न डालने वहां एक यक्ष पहुंचा.

उस यक्ष का नाम शंखचूड़ था. वह कुबेर का अऩुचर था. उसने जब भगवान को संगीत में डूबा हुआ देखा तो मौका देखकर वह गोपियों को लेकर भागने लगा. चीख-पुकार मच गई.

श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई उस यक्ष की ओर लपके. बलरामजी ने फुर्ती से शाल के दो वृक्ष उखाड़ लिए. दोनों पलक झपकने भर की देर में शंखचूड़ के समीप पहुंच गए. शंखचूड़ समझ गया कि दोनों साक्षात काल ही हैं उसके लिए.

शंखचूड़ ने गोपियों को वहीं छोड़ दिया और जान बचाने को भागा. श्रीकृष्ण ने बलरामजी को संकेत में गोपियों की रक्षा के लिए वहीं रूकने को कहा और स्वयं शंखचूड़ के पीछे भागे.

शंखचूड़ के मस्तक पर एक दिव्य चूड़ामणि थी जो इतनी प्रकाशित हो रही थी कि उसकी सहायता से वह वन में सरपट भाग रहा था. भगवान ने सोचा कि यह दुर्बुद्धि इस दिव्य मणि के योग्य नहीं है.

इसे दंड़ देने के बाद वह मणि उन गोपियों को ही दे देना चाहिए जिनको उसने पीड़ा पहुंचाई है. भगवान ने शंखचूड़ को पकड़ लिया. उसके मस्तक पर एक जोरदार घूंसा जमाया.

उसके सिर से चूड़ामणि निकलकर गिर पड़ी और उसका मस्तक धड़ से अलग हो गया. प्रभु के हाथों उसका उद्धार हो गया. उन्होंने वह चूड़ामणि ली और वापस आ गए. प्रभु ने गोपियों को चूड़ामणि का निर्णय करने को कहा.

सभी ने उसके लिए उनकी रक्षा के लिए साथ में डटे रहे बलरामजी को मणि के लिए सबसे उपयुक्त माना. प्रभु इस निर्णय से बड़े प्रसन्न हुए और मणि बलरामजी को भेंट कर दी.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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