रामनाम वंदना और राम नाम महिमा
तुलसीदासजी अपने आराध्य श्रीराम नाम के दो अक्षरों ‘र’ और ‘म’ की प्रकृति, महिमा और आनंद का वर्णन कर रहे हैं. इसमें सारे ब्रह्मांड की शक्तियों का समायोजन है इसलिए इसे सबसे प्रभावी बीज मंत्र समझना चाहिए.
चौपाई :
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥
भावार्थ: राम के ‘र’ और ‘म’ दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं. जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं.
इनके स्मरण से लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं. इस लोक में यह लाभ और पुण्य दिलाने वाले हैं तो परलोक में निर्वाह कर पार लगाते हैं अर्थात् इनके प्रभाव से भगवान के दिव्य धाम में भगवत्सेवा का अवसर प्राप्त होता है.
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥2॥
भावार्थ:- ये कहने, सुनने और स्मरण करने में बहुत ही सुंदर और मधुर हैं और तुलसीदास को श्री राम-लक्ष्मण के समान प्रिय हैं. ‘र’ और ‘म’ का अलग-अलग वर्णन करने में तो जैसे प्रीति का वियोग होता है.
‘राम’ तो बीज मंत्र है. अक्षरों में उच्चारण, अर्थ और फल में देखने में भिन्नता भले ही लगती हो परन्तु हैं ये इनका साथ तो बिलकुल वैसा ही है जैसा जीव और ब्रह्म का. दोनों समान स्वभाव के, एक रूप और रस के ताथ सदा साथ रहने वाले हैं.
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥3॥
भावार्थ: ये दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुंदर भाई हैं. ये जगत का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं. ये भक्ति रूपिणी सुंदर स्त्री के कानों के आभूषण कर्णफूल हैं और जगत के हित के लिए निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं.
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥4॥
भावार्थ: ये सुंदर अक्षर सुंदर गति यानी मोक्ष रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं. कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करने वाले हैं.
भक्तों के मन रूपी सुंदर कमल में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपी यशोदाजी के लिए श्री कृष्ण और बलरामजी के समान आनंद देने वाले हैं.
दोहा :
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं- श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं. इनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है.