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रूपा ने कहा- देखो कबीरदासजी आप मेरे मित्रों को कुछ न कहें. मेरे मित्रों से मेरा घर चलता है! मैं यहां से कहीं जाने वाली नहीं. तुम्हारे कारण बहुत नुकसान हो रहा है मेरा! इसलिए अपना बोरिया-बिस्तर समेटो और कहीं और धुन लगाओ.

कबीर बोले- रूपा तुम्हारे मित्रों से तुम्हारा घर चलता है. मेरा मित्र पूरे संसार को चलाता है. तू भी उसकी शरण में जा. फिर जीवन में कोई कमी नही रहेगी! वो पूरे जगत का मालिक है!

रूपा ने गुस्से में कहा- अब तुम्हें मेरे मित्रों के क्रोध का सामना करना पडेगा.

कबीर ने बात अनसुनी की और सत्संग भजन में मस्त हो सत्संग सुनाने लगे. रूपा गुस्से में पैर पटकती चली गई.

कुछ दिन बाद रूपा ने अपने मित्रों के साथ मिलकर कबीर की झोपड़ी में आग लगवा दी. कबीर उस समय पेड के नीचे ध्यान में बैठे थे. किसी ने आकर कबीरजी को बताया कि आपकी झोपडी में आग लग गई.

कबीरदासजी ने बास सुनी पर कोई प्रतिक्रिया नही दी. बस शांतचित्त ध्यान में बैठे रहे. भक्त सब परेशान हो आग बुझाने लगे परंतु आग बढ़ती गई. तभी आंधी भी चलने लगी.

अब तो आग ऐसी बढ़ गई जैसे सबकुछ लील लेना चाहती हो.

हवा के वेग से लपटें रूपा के बंगले तक आग भी पहुंच गई और देखते ही देखते उसकी कोठी जलने लगी. रूपा के मित्रों ने भी कोशिश की पर आग नही बुझी! पूरा बंगला खाक हो गया.

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