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एक बार राजा बहुलाश्व ने नारदजी से पूछा कि भगवान विष्णु की जिस चरणधूलि लेने के लिये देवतागण भी तरसते रहते हैं वह चरण कालिया नाग को सिर पर कैसे प्राप्त हुआ? किस पुण्य के कारण एक विषधर नाग को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ?

नारदजी ने कहा- हे राजन! इसकी एक कथा है जो मैं आपको सुनाता हूं. बात स्वायंम्भुव मनवंतर की है. उसमें एक प्रसिद्ध मुनि हुए वेदशिरा. जितना बड़ा नाम उतना ही बड़ा आश्रम. भृगु वंश के ये मुनि थोड़े गुस्सैल भी थे.

एक दिन उनके आश्रम पर अश्वशिरा नाम के मुनि आये. प्रसिद्धि में वे भी कुछ कम न थे. वेदशिरा कहीं गये हुए थे. विंध्याचल पर स्थित अश्वशिरा का आश्रम बड़ा रमणीय था. वेदशिरा को यह आश्रम अपनी तपस्या के लिए जंच गया.

वेदशिरा ने अपने प्रभाव से अश्वशिरा की मंशा भांप ली और इस बात से बहुत नाराज हुए कि अश्वशिरा उसी आश्रम में रहकर तपस्या करना चाहते हैं. उन्होंने आपत्ति जताई- क्या कोई और जगह धरती पर नहीं है, मेरे आश्रम पर ही क्यों?
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