गोदावरी के तट पर नासिक में कुंभ का आयोजन हुआ है. आपमें से कई लोग लगातार कुंभ से जुड़ी कथाएं प्रकाशित का अनुरोध कर चुके हैं. कुंभ से जुड़ी दो पौराणिक कथाएं मुख्य रूप से शास्त्रों में आती हैं.

पहली दुर्वासा के शाप से ऐश्वर्य-संपदा से रहित होकर क्षीण पड़ गए देवताओं ने असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन किया. मंथन से निकले अमृत कलश की छीनाझपटी हुई जिसमें चार स्थानों पर कलश से अमृत छलककर गिरा. वहीं कुंभ स्नान होते हैं.

दूसरी कथा है कश्यपजी की दो पत्नियों नागों की माता कद्रू और गरूड़ की माता विनता के आपसी द्वेष की. विनता को कद्रू की दासता से मुक्ति कराने के लिए गरूड़ इंद्र से संघर्ष करके अमृत कलश ले आए. इस दौरान चार स्थानों पर अमृत छलका.

दोनों ही कथाएं बड़ी सुंदर और विस्तृत हैं. हम पहले ये कथाएं दे चुके हैं. आपकी मांग पर फिर से एक-एक करके देते जाएंगे. उससे पहले कुंभ का महत्व क्या है. इस पर आज बात करते हैं.

देवताओं के इशारे पर इंद्रपुत्र जयंत समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश को लेकर उड़ गया. दैत्यों ने जयंत का पीछाकर बीच राह में ही पकड़ लिया. अमृत कलश को हथियाने के लिए देव-असुरों में बारह दिन तक युद्ध होता रहा.

इस छीना-झपटी में अमृत छलका और प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक इन चार स्थानों पर कुछ बूंदें गिरीं. प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर, हरिद्वार गंगातट पर उज्जैन शिप्रा और नासिक गोदावरी के तट पर बसा हुआ है.

उस समय चंद्रमा ने घट से अमृत के प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट के फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से उस घट की रक्षा की. फिर श्रीहरि ने मोहिनी रूप लेकर अमृत वितरण किया.

देवों ने बारह दिन युद्ध किया था. उनके बारह मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं. इसलिए कहा जाता है कि कुंभ भी बारह होते हैं. उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं, शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं. वह देवगणों को ही प्राप्त हैं.

जिस समय में चंद्र सूर्य गुरू आदि ने कलश की रक्षा की थी, उस समय ग्रहों की जो स्थिति थी उन राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्य आदि ग्रह जब आते हैं तब कुंभ का योग होता है.

यानी जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ आयोजन होता है. कुंभ की शुरुआत संत महात्माओं के स्नान से होती है.

पुराणों में प्रसंग आता है, जब भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने की प्रार्थना की तो गंगाजी ने पूछा- लोग मुझमें स्नान करके अपने पापों से तो मुक्ति पा लेंगे लेकिन वे पाप तो मुझमें डाल जाएंगे. फिर उस पाप को मैं कैसे धोऊंगी?

भागीरथ बोले- आत्मतीर्थ में नहाए ब्रम्हज्ञानी जब तुममें स्नान करेंगे तो उनके स्पर्श से आपके पाप नष्ट हो जाएंगे पवित्र हो जाएंगी. अत: कुम्भों में ब्रम्हज्ञानी गंगास्नान करने आते है तो गंगा स्वयं को स्वयं को पावन करने का अवसर मिलता है.

कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है. सूर्य एवं गुरू दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ का आयोजन गोदावरी तट पर नासिक में होता है. गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब उज्जैन में कुंभ होता है.

जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में और गुरू मेष राशि में हों तो प्रयाग में कुंभ होता है. गुरु जब कुंभ राशि में हों और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करतें है तब हरिद्वार में कुंभ होता है.

गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है. बारह राशियों में भ्रमण करते उसे 12 वर्ष लगते हैं. इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ होता है. हर 144 वर्ष बाद महाकुंभ का आयोजन होता है.

पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं के एक दिन के बराबर है. देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी के 144 वर्ष के बाद आता है. मान्यता है कि 144 वर्ष बाद स्वर्ग में भी कुंभ आयोजन होता है.

अतः उस वर्ष प्रयाग में महाकुंभ का आयोजन होता है. तन, मन व मति के दोषों की निवृति के लिए तीर्थ और कुम्भ पर्व हैं. अमृत प्राप्ति के लिए होनेवाला देवासुर संग्राम हमारे भीतर भी हो रहा है.

तुलसीदासजी कहते है- वेद समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं. उस अमृत में भक्ति और सत्संग रूपी मधुरता बसती है.

कुमति के विचार ही असुर हैं, विवेक मथनी है और प्राण-अपान ही वासुकि नागरुपी रस्सी हैं. इन्हें मथकर अमृत निकालने का प्रयास धर्म और आध्यात्म है. प्रभु शरणम् इसी महान कार्य में एक छोटा सा प्रयास. कुंभ की कथाएं आज से पढ़िए.

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