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कुछ दिन बाद दुर्वासा ऋषि फिर उसी वेश में आये और वैसा ही किया. अगली बार तो वे ठीक तीसरे दिन आये जब महर्षि मुद्गल के परिवार के भोजन का दिन होता था. इस तरह उन्होंने छह माह तक किया.
हर बार वे पुराने वेश में ही आते ताकि मुद्गल उन्हें मना कर दें पर महर्षि न तो चिंतित होते न दुखी, आदर भाव भी एक सा बना रहता. मना करने, खीझने और नाराज होने की तो बात ही अलग थी.
दुर्वासा ने ऐसा लगातार किया. हर बार उन्होंने मुद्गल का सारा अन्न खा लिया. मुद्गल भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने, भीख मांगने और बचे समय में गणेश भजन में लग जाते थे.
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