एक बार एक सेठ पूरे एक वर्ष तक चारों धाम की यात्रा करके आया. उसने पूरे गांव में अपनी एक वर्ष की उपलब्धि का बखान करने के लिए प्रीतिभोज का आयोजन किया.

सेठ ने बताना शुरू किया कि एक वर्ष में तीर्थयात्राएं करके वह अपने अंदर से क्रोध-अंहकार को समाप्त कर आए हैं. चारों धामों की यात्रा करके उन्होंने अपने भीतर के इस विकार को प्रभु के सम्मुख ही त्याग दिया है.

वह शेखी बधारते जा रहे थे. सेठ का एक नौकर था. वह बड़ा ही बुद्धिमान था. भोज के आयोजन से तो वह जान गया था कि सेठ अभी अंहकार से मुक्त नहीं हुआ है किन्तु अभी उसकी क्रोध की परीक्षा लेनी बाकी थी.

उसने भरे समाज में सेठ से पूछा कि सेठजी इस बार आप क्या क्या छोड़कर आये है? सेठजी ने बड़े उत्साह से कहा- क्रोध, अंहकार त्याग कर आया हूं. फिर कुछ देर बाद नौकर ने वही प्रश्न दोबारा किया.

सेठ जी का उत्तर वही था. नौकर ने एक बार फिर वही प्रश्न पूछा तो क्रोध का त्याग कर आए सेठजी अपने आपे से बाहर हो गए. उनकी त्योरियां चढ़ गईं और नौकर पर चीखने लगे.

दो टके का नौकर. मेरा दिया खाता है और मेरा ही मजाक उड़ा रहा है. बस इतनी सी ही देर थी कि नौकर ने भरे समाज में सेठजी के क्रोध-अंहकार त्याग की पोल खोलकर रख दी.

तीर्थों के दर्शनमात्र से आपके मन के विकार दूर नहीं होते. मन निर्मल करना पड़ता है. भगवान आपके मन को पवित्र करने के लिए आपको तीर्थों तक बुलाते हैं, एक अवसर देते हैं अपने सान्निध्य में विकारों से मुक्ति पाने का.

यदि ईश्वर के पास पहुंचकर भी आप उसी दुनिया में बने रहे जिसके विकारों से मुक्ति के लिए ईश्वर ने आपको अपने शरण में कुछ समय के लिए रखा था. तो तीर्थ-धाम सारे व्यर्थ समझिए. ये तीर्थयात्रा नहीं बस पिकनिक होकर रह जाता है.

संकलनः धर्मेंद्र शर्मा
संपादनः राजन प्रकाश

यह कथा मुरादाबाद उत्तर प्रदेश के धर्मेंद्र शर्माजी के द्वारा प्राप्त हुई. धर्मेंद्रजी इंजीनियर हैं और अध्यापन कार्य कर रहे हैं.

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