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भगवान श्री चित्रगुप्त पूजन कथा…

भीष्म पितामह ने पुलस्त्य मुनि से पूछा कि हे महामुनि संसार में कायस्थ नाम से विख्यात मनुष्य किस वंश में उत्पन्न हुए हैं तथा किस वर्ण में कहे जाते हैं, इसे मैं जानना चाहता हूँ. इस प्रकार के वचन कहकर भीष्म पितामह ने पुलस्त्य मुनि से इस पवित्र कथा को सुनने की इच्छा जाहिर की.

पुलस्त्य मुनि ने प्रसन्न होकर गंगा पुत्र भीष्म पितामह से कहा – हे गांगेय मैं कायस्थ उत्पत्ति की पवित्र कथा का वर्णन आपसे करता हूं. जो इस जगत का पालनकर्ता है वही फिर नाश करेगा उस अव्यक्त शांत पुरुष लोक- पितामह ब्रम्हा ने जिस तरह पूर्व में इस संसार की कल्पना की है वही वर्णन मैं कर रहा हूँ.

मुख से ब्राम्हण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य, पैर से शूद्र, दो पांव, चार पांव वाले पशुओं से लेकर समस्त सर्पादि जीवो का एक ही समय में चन्द्रमा, सूर्यादि ग्रहों को और बहुत से जीवों को उत्पन्न कर ब्रम्हा ने सूर्य के समान तेजस्वी ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर कहा- हे सुब्रत तुम यत्नपूर्वक इस जगत की रक्षा करो.

सृष्टि का पालन करने के लिए ज्येष्ठ पुत्र को आज्ञा देकर ब्रम्हा ने एकाग्रचित होकर दस हजार वर्ष की समाधि लगाई. अंत में विश्रांत चित्त हुए. उसके उपरांत ब्रम्हा के शरीर से बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले श्यामवर्ण, कमलवत गर्दन, चक्रवत तेजस्वी, अति बुद्धिमान, हाथ में कलम-दवात लिए तेजस्वी, अतिसुन्दर विचित्रांग, स्थिर नेत्र वाले, एक पुरुष अव्यक्त जन्मा, जो ब्रम्हा के शरीर से उत्पन्न हुआ.

हे भीष्म! उस अव्यक्त पुरुष को नीचे से ऊपर तक देखने के बाद ब्रम्हाजी ने समाधि छोडकर पूछा- हे पुरुषोत्तम हमारे सामने स्थित आप कौन हैं. ब्रम्हा का यह वचन सुनकर वह पुरुष बोला- हे विधे में आप ही के शरीर से उत्पन्न हुआ हूं इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है. हे तात अब आप मेरा नामकरण करें और मेरे योग्य कार्य भी कहिये.

यह वाक्य सुनकर ब्रम्हाजी निज शरीर रज पुरुष से प्रसन्न मुद्रा से बोले- मेरे शरीर से तुम उत्पन्न हुए हो इससे तुम्हारी कायस्थ संज्ञा है और पृथ्वी पर चित्रगुप्त तुम्हारा नाम विख्यात होगा. हे वत्स धर्मराज की यमपुरी में धर्म-अधर्म विचार के लिए तुम्हारा निश्चित निवास होगा. हे पुत्र! अपने वर्ण में जो उचित धर्म है उसका विधिपूर्वक पालन करो और संतान उत्पन्न करो.

इस प्रकार ब्रम्हा जी भार युक्त वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए. श्री पुलस्त्य मुनि ने कहा है- हे भीष्म चित्रगुप्त से जो प्रजा उत्पन्न हुई है, उसका भी वर्णन करता हूँ, सुनिये.

चित्रगुप्त का प्रथम विवाह सूर्य नारायण के बड़े पुत्र श्राद्धदेव मुनि की कन्या नंदिनी एरावती से हुआ. इनसे चार पुत्र उत्पन्न हुए. प्रथम भानु जिनका नाम धर्मध्वज है जिसने श्रीवास्तव कायस्थ वंश की वृद्धि की.

द्वितीय पुत्र मतिमान जिनका नाम समदयालु है जिनसे सक्सेना वंश चला. तृतीय पुत्र चारु जिनका नाम युगन्धर है, इनसे माथुर कायस्थ वंश शुरू हुआ. चतुर्थ पुत्र सुचारू जिनका नाम धर्मयुज है उनसे गौड कायस्थ वंश बढ़ा.

चित्रगुप्तजी का दूसरा विवाह सुशर्मा ऋषि की कन्या शोभावती से हुआ. इनसे आठ पुत्र हुए. प्रथम पुत्र करुण जिनका नाम सुमति है उनसे कर्ण कायस्थ हुए. द्वितीय पुत्र चित्रचारू जिनका नाम दामोदर है, उनसे निगम कायस्थ हुए.

तृतीय पुत्र का नाम भानुप्रकाश है जिनसे भटनागर कायस्थ हुए. चतुर्थ युगन्धर से अम्बष्ठ कायस्थ, पंचम पुत्र वीर्यवान जिनका नाम दीन दयालु है से अस्थाना कायस्थ छठे पुत्र जीतेंद्रीय जिनका नाम सदानन्द है से कुलश्रेष्ठ कायस्थ वंश चले. अष्टम पुत्र विश्वमानु जिनका नाम राघवराम है से बाल्मीक कायस्थ हुए.

हे भीष्म चित्रगुप्त से उत्पन्न सभी पुत्र सभी शास्त्रों में निपुण थे और धर्म-अधर्म को जानने वाले थे. श्रीचित्रगुप्त ने सभी पुत्रों को पृथ्वी पर भेजा और धर्म साधना की शिक्षा दी और कहा की तुम्हें देवताओं का पूजन, पितरों का श्राद्ध-तर्पण, ब्राम्हणों का पालन-पोषण और अभ्यागतों की यत्नपूर्वक श्रद्धा करना.

हे पुत्र तीनो लोकों के हित के लिए यत्नकर धर्म की कामना करके महर्षिमर्दिनी देवी का पूजन अवश्य करना जो प्रकृति स्वरूप हैं और चण्ड मुण्ड का नाश करने वाली तथा समस्त सिद्धियों को देने वाली है. ऐसी देवी के लिए तुम सब उत्तम मिष्ठानादि समर्पण करो जिससे वह चण्डिका देवताओं की भाँती तुमको भी सिद्ध देने वाली हों.

वैष्णव धर्म का निर्वाह करते हुए मेरे वाक्य का पालन करो. सभी पुत्रों को आज्ञा देकर चित्रगुप्त स्वर्गलोक चले गये स्वर्ग जाकर चित्रगुप्त धर्मराज के अधिकार में स्थित हुए. हे भीष्म इस प्रकार चित्रगुप्त की उत्पत्ति मैंने आपसे कही.

अब मैं उन लोगों का विचित्र इतिहास और चित्रगुप्त का जैसा प्रभाव उत्पन्न हुआ सो भी कहता हूँ. श्री पुलस्त्य मुनि बोले कि नित्य पाप कर्म में रत पृथ्वी पर सौदास नामक राजा हुआ. उस पापी दुराचारी तथा धर्म-कर्म से रहित राजा ने जिस प्रकार स्वर्ग में जाकर पुण्य के फल का भोग किया वह कथा सुना रहा हूं.

राजनीति को नहीं जानते हुए राजा ने अपने राज्य में ढिंडोरा पिटवा दिया कि दान-धर्म, हवन, श्राद्ध-तर्पण, अतिथियों का सत्कार, जप-नियम तथा तप मेरे राज्य में कोई ना करे. देवी आदि की भक्ति में तत्पर वहां के निवासी ब्राम्हण लोग उसके राज्यों को छोड़ अन्य राज्यों में चले गये.

जो रह गये वे यज्ञ हवन श्रद्धा तथा तर्पण कभी नहीं करते थे. हे गंगापुत्र तबसे उसके राज्य में कोई भी यज्ञ हवन आदि पुण्य कर्म नहीं कर पाता था. उस समय पुण्य उस राज्य से ही बाहर हो गया था. ब्राम्हण तथा अन्य वर्ण के लोग नाश करने लगे. अब आपको उस दुष्ट राजा का कर्म फल सुनाता हूँ.

हे भीष्म! कार्तिक शुक्ल पक्ष की उत्तम तिथि द्वितीय को पवित्र होकर सभी कायस्थ चित्रगुप्त का पूजन करते थे. वे भक्तिभाव से परिपूर्ण होकर धूप-दीप आदि कर रहे थे. देवयोग से राजा सौदस भी घूमता हुआ वहां पहुंचा और पूजन देखकर पूछने लगा यह किसका पूजन कर रहे हो.

तब वे लोग बोले कि राजन हम लोग चित्रगुप्त की शुभ पूजा कर रहे हैं. दैवयोग से यह सुनकर राजा सौदस के मन में पूजा ने कहा कि मैं भी चित्रगुप्त की पूजा करूँगा.

यह कहकर सौदास ने विधिपूर्वक स्नानादि करके मन से चित्रगुप्त की पूजा की. इस भक्तियुक्त पूजा करने से उसी क्षण राजा सौदस पापरहित होकर स्वर्ग चला गया.

इस प्रकार चित्रगुप्त का प्रभावशाली इतिहास मैंने आपसे कहा. अब हे नृपश्रेष्ठ और क्या सुनने की आपकी इच्छा है? यह सुनकर भीष्म पितामह ने महर्षि पुलस्त्य मुनि से कहा- हे मुनिवर किस विधि से वहां उस राजा सौदस ने चित्रगुप्त का पूजन किया जिसके प्रभाव से सौदास स्वर्ग लोक को चला गया, वह कहें.

श्रीपुलस्त्य मुनि बोले- हे भीष्म! चित्रगुप्त के पूजन की संपूर्ण विधि मैं आप से कह रहा हूं. घृत से बने नैवेध, ऋतुफल, चन्दन, पुष्प, दीप तथा अनेक प्रकार के रेशमी और विचित्र वस्त्र से, शंख मृदंग, डिमडिम अनेक बाजे के साथ भक्तिभाव से पूजन करें.

हे विद्वान नवीन कलश लाकर जल से परिपूर्ण करें. उस पर शक्कर भरा कटोरा रखें और यत्नपूर्वक पूजनकर ब्राम्हण को दान देवें. पूजन का मंत्र भी इस प्रकार पढ़े – दवात कलम और हाथ में खल्ली लेकर पृथ्वी में घूमने वाले हे चित्रगुप्त आपको नमस्कार हे चित्रगुप्त आप कायस्थ जाति में उत्पन्न होकर लेखकों को अक्षर प्रदान करते हैं जिसको आपने लिखने की जीविका दी है. आप उनका पालन करते हैं इसलिए मुझे भी शांति दीजिए.

हे भीष्म इन मंत्रों से संकल्पपूर्वक चित्रगुप्त का पूजन करना चाहिए. इस प्रकार राजा सौदास ने भक्तिभाव से पूजन कर निजराज्य का शासन करता हुआ कुछ ही समय में मृत्यु को प्राप्त हुआ. यमदूत राजा सौदास को भयानक यमलोक में ले गए.

चित्रगुप्त ने यमराज से पूछा कि यह दुराचारी पाप कर्मरत सौदास राजा है जिसने अपनी प्रजा से पापकर्म करवाया है. इसके लिए कठोरतम दंड का विधान होना चाहिए.

इस प्रकार धर्मराज से पूछे जाने पर धर्माधर्म को जानने वाले महामुनि चित्रगुप्त जी ने हंसकर उस राजा के लिए धर्मयुक्त शुभ वचन कहा- हे धर्मराज, यह राजा यद्यपि पापकर्म करने वाला पृथ्वी में प्रसिद्ध है और मैं आपकी प्रसन्नता से पृथ्वी पर पूज्य हूं.

हे स्वामिन आपने ही मुझे वह वर दिया है. आपका सदैव कल्याण हो. आपको नमस्कार है. हे देव आप भली-भांति जानते हैं और मेरी भी मति है कि यह राजा पापी है तब भी इस राजा ने भक्तिभाव से मेरी पूजा की है इससे मैं इससे प्रसन्न हूं. हे इष्टदेव इस कारण यह राजा बैकुंठ लोक को जाए.

चित्रगुप्त का यह वचन सुनकर यमराज ने राजा सौदास को बैकुंठ जाने की आज्ञा दी और राजा सौदास बैकुंठ लोक को चला गया. श्री पुलस्त्य मुनि ने कहा- हे भीष्म जो कोई सामान्य पुरुष या कायस्थ चित्रगुप्त की पूजा करेगा वह भी पाप से छूटकर परमगति को प्राप्त करेगा.

हे गांगेय, आप भी सर्वविधि से चित्रगुप्त की पूजा करिए जिसकी पूजा करने से हे राजेन्द्र आप भी दुर्लभ लोक को प्राप्त करेंगे. पुलस्त्य मुनि के वचन सुनकर भीष्म ने भक्ति मन से चित्रगुप्त की पूजा की.

चित्रगुप्त की दिव्य कथा को जो श्रेष्ठ मनुष्य भक्ति मन से सुनेगे वे मनुष्य समस्त व्याधियों से छूटकर दीर्घायु होंगे और मरने पर जहाँ तपस्वी लोग जाते हैं, ऐसे विष्णु लोक को जाएंगे.

श्रीचित्रगुप्त महाराज की जय!!
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