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अब नारदजी धरती पर घूम-घूमकर, उलटी-सीधी कामनाएं करने लगे. जिसकी मृत्यु आती उसे जीवित कर देते, जो निर्धन होता उसे अपार धन-दौलत दे देते. जो सन्तान हीन होता, उसे सन्तान दे देते.

इस प्रकार विधि का विधान उल्ट-पुलट होते देख देवताओ में खलबली मच गई.

ब्रह्मा, लक्ष्मी और यमराज क्रोध से तमतमाते हुए विष्णु जी के पास पहुंचे और बोले- “हे भगवान! पृथ्वी पर यह क्या हो रहा है? हमारे आदेशों का पालन पृथ्वी पर नहीं हो रहा है. यही होता रहा तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. हमें कौन पूछेगा?”

उसी समय इंद्र वहां आये और बोले- “अब मै इंद्र नहीं रहना चाहता. बादल मेरा आदेश नहीं मानते. जहाँ कहता हूँ, वहाँ बरसते नहीं और जहाँ मना करता हूँ वहाँ बरस पड़ते हैं.”

शिवजी उस समय वहीं थे.

शिवजी बोले- “नारद का अपमान करके अच्छा नहीं किया. हमें उनसे पृथ्वी लोक के हाल-चाल मालूम हो जाते थे. अब उन्हें चंचल रहने का शाप है इसलिए भटकते रहते हैं पर इस तरह वह हमें सारी सूचनाएं भी तो देते हैं. एक नारद का होना भी आवश्यक है.”

शिवजी की बात सुनकर सभी देवता चुप हो गए. उन्हें क्या मालूम था कि ये सारी करतूतें नारद की ही हैं. फिर सभी देवताओं ने आपस में विचार करके तय किया कि वरुण और वायु जाकर नारद को खोजें और बुलाकर लाएं.
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