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श्रीलक्ष्मीजी ने कहाः हृषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं । आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है । इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं । आप सर्वसमर्थ हैं । इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये ।

श्री भगवान बोलेः प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है । शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है । वही मेरा ईश्वरीय रूप है । आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है । गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है । अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करे हुए कहाः भगवन ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है? मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए ।

श्री भगवान बोलेः सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ । क्रमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो । इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए । यह ज्ञानमात्र से ही महान पातकों का नाश करने वाली है । जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है ।
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