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पंडितानी रसोई बना रही थीं. उगना लकड़ी काट रहे थे. पास ही विद्यापति भक्तिविभोर होकर कोई कविता गुनगुना रहे थे जिसे लकड़ी काटते हुए उगना सुन रहे थे.

जगदंबा के माया प्रभाव से पंडितानी के मन में द्वेष देखा हुआ. उन्हें लगा कि उगना को अब काम में मन नहीं लगता. वह बस मुफ्तखोरी करता है. उसने उनके स्वामी को रिझा लिया है.

काम-धाम करता नहीं. उगना के होने से उन्हें तो कोई आराम ही नहीं, उल्टा पति का प्रेम भी गंवा रही हैं. इसे तो सबक सिखाना पड़ेगा.

पंडितानी को लगा कि उगना आज जानबूझकर धीमे लकड़ी काट रहा है. रसोई के लिए लकड़ी तत्काल चाहिए.

उन्होंने आवाज लगाई- उगना हाथ तेजी से चला. लकड़ी चाहिए तुरंत भोजन पकाने के लिए लेकिन विद्यापति की कविताओं में डूबे या महामाया की माया कह लें, भक्त और भगवान दोनों का ही ध्यान पंडितानी के आदेश पर नहीं गया.

पंडितानी तो आग-बबूला हो गईं. आज तो जगदंबा की माया सिर चढ़कर बोल रही थी.

पंडितानी का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया. उन्होंने चूल्हे में से जलती हुई लकड़ी निकाली और सोचा उगना को आज दंड देना ही होगा. इसके हाथ दाग देती हूं जिससे इसे याद रहेगा अपना काम.

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