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तालाब खूब बड़ा था, गर्मी में भी उसमें पानी बन रहता. पर उसकी सीढियां बनवाते तक पैसा चुक गया. वीरदत्त ने फिर वज्र का पीछा किया और पहले ही की तरह धन निकाल लाया. अब तो सीढियां ही नहीं चबूतरे भी बनवा दिये.

चोर के धन से चुरा चुरा कर वीरदत्त ने भगवान विष्णु और शिव शंकर के भव्य मंदिर भी बनवाये. आसपास के जंगल कटवा कर जमीन तैयार करायी और ब्राह्मणों को बांट दिया.

एक बार ब्राह्मणों को बुला कर खूब पूजा पाठ करवाया और उन्हें कपड़े गहने तक दान में दिये. कुछ के घर ठीक कराये तो कुछ के लिये नयी व्यवस्था कर दी. ब्राह्मण प्रसन्न हुये, किरात लकड़हारे वीरदत्त का नाम उन्होंने द्विजवर्मा रख दिया.

द्विजवर्मा की मृत्यु हुई तो उसे लेने यम के दूत तो पहुंचे ही भगवान शंकर और प्रभु विष्णु के दूत भी पहुंच गये. तीनों में बहस हो गयी. द्विजवर्मा को कौन ले जाये. इसी दौरान नारद जी वहां आ गये.

नारदजी ने कहा, झगड़ो मत, मेरी बात सुनो. द्विजवर्मा ने चोरी के धन से धर्म कर्म किया. जब तक बुरे रास्ते से आये पैसे का प्रायश्चित्त न हो जाये तब तक इसे न स्वर्ग मिलेगा न नर्क.

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