बेटे की बलि देने से स्वामी की जान बच सकती है, यह वाक्य कानों में पड़ते ही बिना एक क्षण गंवाए वीरवर श्मशान से से सीधा घर पहुंचा. घर में पूरा परिवार गहरी नींद ले रहा था.

उसने अपनी पत्नी, बेटी तथा बेटे को जगाकर उनको पूरी बात बहुत संक्षेप में परंतु साफ-साफ बताई. उसने सबसे सहमति ली और उनसब को लेकर घड़ी के भर के भीतर ही चण्डिका के मंदिर में जा पहुंचा.
राजा भी छिपते छिपाते वीरवर के पीछे-पीछे चल ही रहा था. जब वीरवर चला गया तो राजा ने पलकें झपका कर देखा वह स्त्री भी दिखाई नहीं दी. कुछ देर उसने श्मशान में छिप कर ही स्त्री हो ढूंढा पर वह नहीं मिली.

हाथ में तलवार थामे राजा रूपसेन चंडी देवी के मंदिर की ओर बढा. चंडी मंदिर में जाकर छिप गया. उसे देखना था कि क्या वीरवर वापस आता भी है. शीघ्र ही वीरवर सपरिवार आया.

उसने पहले देवी की प्रार्थना की और फिर पलक झपकते ही अपने स्वामी की आयु बढाने के लिए अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी. भाई का कटा सिर देख कर उसकी बहन को ऐसा आघात पहुंचा कि वह तत्काल गिरकर वहीं मर गयी.

अपनी दोनों संतानों को एक झटके में ही खो देने के शोक में उसकी मां के दिल की धड़कनें रुक गयीं, वह भी चल बसी. राजा रूपसेन के सामने यह सब इतनी तेजी से घटा कि कोई प्रतिक्रिया न दे सका. वह जड़ रह गया.

वीरवर ने इन तीनों के शव को एक-एक कर उठाया और श्मशान में ऐसे स्थान पर ले गया जो वर्षा के कारण गीला नहीं हुआ था. तीनों का दाह-संस्कार करने के बाद पूरे परिवार के खत्म होने के दुःख में उसने अपनी गर्दन भी काटकर चढ़ा दी.

अब राजा को कुछ चेतना आई. वह अत्यंत दुःखी हुआ. उसने देवी की प्रार्थना की और एक न्यायप्रिय प्रजापालक राजा की तरह अपने जीवन को व्यर्थ बताते हुए अपना सिर काटने के लिए तलवार उठा ली.

अंधेरी रात में बिजली की तरह चमचमाती रूपसेन की तलवार उसके गरदन के पास पहुंचती इससे पहले देवी ने प्रकट होकर राजा का हाथ पकड़ लिया और बोली– राजन! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं.

निस्संदेह तुम प्रजापालक और न्यायप्रिय हो. तुम्हारी आयु पर अब कोई संकट नहीं. तुम्हारी आयु तो सुरक्षित हो ही गयी. एक के बदले चार बलियां मिल चुकी हैं. अब तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार कोई भी वर मांग सकते हो.

संदेह नहीं कि राजा ने राजा ने देवी से यही वर मांगा कि वीरवर अपने परिवार समेत जीवित हो जाए, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ और नहीं चाहिए. देवी वरदान देकर अन्तर्धान हो गयीं.

अंत भला तो सब भला. राजा प्रसन्न होकर फिर चुपचाप अपने महल में आ गया. इधर वीरवर भी स्वयं को और पूरे परिवार को जीवित देख चकित हुआ. उसे लगा कि शायद कोई बुरा सपना देखा था.

अपने पूरे परिवार के जीवन दान को अपने अर्जित पुण्यों का प्रताप और देवी की कृपा माना. वीरवर ने देवी को नमन किया फिर परिवार के साथ घर लौटा. उन्हें घर पर सकुशल छोड़ कर फिर से सिंहद्वार पर तैनात हो गया.

भोर में राजा ने वीरवर को महल में बुलाया और पूछा- वीरवर क्या कुछ पता चला, रात में रोने वाली नारी कौन थी और उसके रोने का कारण क्या था?

वीर वर ने कहा– ‘राजन! मुझे प्रतीत होता है कि वह कोई कोई चुड़ैल ही थी. जैसे ही मैं पहुंचा, आहट पाते ही वह अदृश्य हो गई. चिंता करने जैसी कोई बात नहीं है.

वीरवर की स्वामीभक्ति और धैर्य देखकर राजा रूपसेन अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने अपनी कन्या का विवाह वीर वर के पुत्र से कर दिया तथा वीर वर को अपना मित्र बना लिया. इतनी कहानी कहकर वैताल बना रुद्र किंकर शांत हो गया.

कुछ क्षणों के उपरांत वेताल ने राजा विक्रम से पूछा– राजन! इस कथा में सबने एक दूसरे के लिए स्नेहवश अपने प्राणों का बलिदान किया. पर सबसे अधिक स्नेह और त्याग किसका था और क्यों? वह अब आप बताइए.

राजा बोले– ठीक है कि अपने-अपने स्थान पर सभी ने अपने-अपने कर्तव्यों का अद्भुत आदर्श उपस्थित किया, बलिदान दिया. फिर भी राजा का स्नेह ही सबसे अधिक मान्य है.

वीरवर राज सेवक था, उसे अपनी सेवा के बदले पर्याप्त स्वर्ण मुद्राएं मिलती थी, अत: उसने सेवा धर्म निभाते हुए स्वर्ण मुद्राओं का प्रतिदान देते हुए अपनी जान दे दी.

पूरे परिवार के चले जाने से उसमें नैराश्य भी उसके जान देने का कारण था. वीरवर की पत्नी पतिव्रता थी. मां को पुत्र-पुत्री प्राणों से प्यारे थे. इसलिए उसने भी अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया.

बहिन का अपने भाई में प्रेम था. पुत्र का पिता में स्नेह था. यह तो स्वभाववश होता ही है, किन्तु राजा रूपसेन ने महान स्नेह का आदर्श उपस्थित किया. एक समान्य सेवक के लिए भी अपनी गरदन काटने को तैयार हो गए. अत: उन्हीं का स्नेह उनका ही त्याग सर्वश्रेष्ठ है.

(संदर्भ-भविष्य पुराण प्रतिसर्गपर्व द्वितीयखंड का प्रथम अध्याय)

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