राजा सुप्रतीक के दो रानियां थीं- विद्युतप्रभा और कांतिमती. दोनों सुंदर बहुत थीं पर संतानहीन. दुःखी राजा चित्रकूट पहाड़ पर चले गए और ऋषियों में श्रेष्ठ दुर्वासा की आराधना की.
महाक्रोधी दुर्वासा प्रसन्न हुए. वह सुप्रतीक को वर देने ही वाले थे कि हाथी पर बैठे इंद्र अपनी सेना के साथ वहां से गुजरे और दुर्वासा को देखा तक नहीं. दुर्वासा को क्रोध आया और श्राप दे बैठे कि जा तू अपनी पदवी से गिरेगा और दूसरे लोक में जाकर रहेगा.
फिर वे सुप्रतीक की और घूमे और वर की मुद्रा में आकर बोले. जा तुझे महाप्रतापी, इंद्र सरीखा रूपवान, उससे भी बलशाली, ज्ञानी पुत्र प्राप्त होगा पर वह क्रूर कर्मों में भी लिप्त रहेगा. दुर्वासा के वर से दुर्जय का जन्म हुआ.
सुप्रतीक ने वन की शरण ली दुर्जय राजा बना और जल्दी ही इस परम प्रतापी राजा ने पूरा जम्बुद्वीप अपने अधीन कर लिया. अब उसके आगे बढते कदम रोकने के लिये इंद्र दलबल समेत आ गये. उसने इंद्र को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया.
दुर्जय ने हेतु-प्रहेतु की कन्याओं मित्रकेशी और सुकेशी से विवाह किया और उसके दो बेटे प्रभव और सुदर्शन पैदा हुए. अब राजा अपने सारे शत्रुओं से निबट चुका और राजकाज सहज हो गया. तो वह आमोद प्रमोद में लगा.
एक दिन वह फौज फाटे के साथ आखेट पर निकला और जंगल में घुस कर जानवरों का अंधाधुंध शिकार करने लगा. जंगल के एक सुंदर किनारे पर उसे एक बहुत ही सुंदर आश्रम दिखा. यह गौरमुख ऋषि का आशरम था.
सेमिका महर्षि के आज्ञाकारी शिष्य थे गौरमुख. अपने सदगुरू से ऊँची साधना सीखकर गौरमुख इस जंगल में आश्रम बनाकर रहते थे. उनका आश्रम विशाल और रमणीय था.
गौरमुख के वेदपाठी चेलों से वेदपाठ करते समय कोई स्वर गलत हो तो वे पक्षियों के मुख से वेदोच्चारण करवा गलती सुधरवा देने की ताकत रखते थे.
राजा दुर्जय आश्रम में सेना सहित प्रवेश कर गये तो गौरमुख ने कहा- राजन! आपका स्वागत है, आपकी सेना और सेनापतियों का भी स्वागत है. स्वागत है, कह देने पर उनके खाने-पीने, रहने की व्यवस्था का जिम्मा अब गौरमुख के सिर पर आ गया.
भगवान विष्णु के परम भक्त ने उनसे प्रार्थना की- हे प्रभु! विकट समय है. राजा ही नहीं पूरी फौज का प्रबंध करना है. मैं निर्धन कैसे कुछ कर सकता हूं. तत्काल सहायता करें.
भगवन विष्णु प्रकट हो गये बोले क्या कर सकता हूं. जो वर मांगना हो मांग लो. गौरमुख बोले- आपके दर्शन के बाद वर का क्या करना? बस इस संकट से निबटने का उपाय करें. लाज बचायें.
अपने लिए कभी कुछ न माँगने वाले, निर्दोष गौरमुख की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने एक बड़ी सी मणि देते हुये कहा- तुम इसके आगे जो भी चिंतन करोगे, चाहोगे उसकी सब व्यवस्था यह चिंतामणि कर देगी.
गौरमुख ने चिंतामणि को एक एकांत में स्थापित किया और उस के सामने बैठकर कहा- हे नारायण के प्रसाद ! राजा के लिए सेवक सेविकाएं चाहिए. तत्काल सैकड़ों रूपसी स्त्रियां मणि से निकल पड़ी.
उन्होंने कहा- मेरे आश्रम में राजकीय सेना के समेत सेनापतियों के रहने योग्य जगह बन जाय और उनके खाने लायक कई तरह के भोजन भी बन जाय. यह भी हो गया.
वह फिर बोले- घोड़ों के लिए दाना, हाथियों के लिए चारा और राजा के लिए उनके लायक निवास व भोजन बन जाये. गौरमुख चिंतामणि के आगे सोचते गये और सारी व्यवस्था हो गयी.
आश्रम की व्यवस्था यह देखकर दुर्जय राजा दंग रह गया. वह उस रात इंद्र की तरह सोने के पलंग पर सोया. अगले दिन जब राजा सेना सहित वहाँ से जाने लगा तो मणि की बनायी हुई सभी चीजें गायब हो गयीं.
राजा दुर्जय ने मणि की शक्ति को देख मंत्री को आज्ञा दिया कि जाओ! गौरमुख को बोलो कि चिंतामणि हमें दे दे. इतनी अनमिल चीज की उस साधु को क्या जरूरत है.
गौरमुख ने मंत्री से कहा- यह भगवान विष्णु का उपहार है, मैं नहीं दे सकता. यह सुन दुर्जय को गुस्सा आ गया. बोला अब तो बल से लेंगें. बड़ी सी सेना भेज दी. शांतिप्रिय गौरमुख राजा का यह रुख देख घबरा गये.
उन्होंने भगवान से प्रार्थना की- हे नारायण राजा तो आतंकी हो रहा है. पोषक ही शोषक बन गया. रक्षा कीजिये. इस चिंतामणि के कारण इतना बवाल. इसे वापस ले लीजिये और दुष्ट दुर्जय सहित उसकी सेना को नष्ट कर दीजिये.
उन्हें अचानक चिंतामणि का ध्यान आया तो अपनी यही प्रार्थना चिंतामणि के आगे दुहरा दी. पल भर भी न बीता कि अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित एक विशाल सेना जो दुर्जय की सेना से बहुत बड़ी और ताकतवर थी प्रकट हो गयी.
अब तक दुर्जय और उसके खास मंत्री भी सैनिकों की अगुवाई के लिये आ पहुंचे थे. चिंतामणि की सेना के लिये क्या कठिन था! उसने भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र चलाया और दुर्जय समेत उसकी सेना घोड़े पलक झपकते नष्ट हो गयी.
भगवान विष्णु फिर प्रकट हुये और बोले- महर्षि ! सारे दुष्ट पलक झपकते यानी एक निमेष में ही नष्ट हो गये हैं. लोग इसे नैमिषारण्य के नाम से जानेंगे. यहां ऋषियों, मुनि बसेंगे. हमेशा सत्संग, ज्ञानचर्चा व ध्यान, उपासना होती रहेगी.
यह कहकर भगवन अंतर्धान हो गये. बाद में उस जगह का नाम नैमिषारण्य पड़ा. यह वही जगह है जहाँ सूत जी ने शौनकादि महामुनियों को श्रीमद भागवत सुनाया.
नैमिषारण्य का संदेश है कि जो अपनी शक्ति का अहंकार व योग्यता का दुरूपयोग करके महापुरुषों का अपमान करता है, उसका महाप्रतापी राजा दुर्जय की तरह सर्वनाश होता है.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश