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विष्णुजी ने बताया था कि महेश्वर ने स्वयं उन्हें प्रणम्य बनाया है. इस नाते उनकी लक्ष्मी भी प्रणम्य और पूजनीय हो गईं. शिवजी के लिए जो पूजनीया हैं, सती ने कौतुक में उनका ही रूप धर लिया. अब उन्हें पत्नी समान प्रेम कैसे दें!
शिवजी बोले तो कुछ नहीं परंतु मन से ही सती का त्याग करने का निर्णय कर लिया. सतीजी माया से ग्रसित थीं. वह समझ नहीं पा रही थीं फिर उन्होंने भी अपनी योगशक्ति से शिवजी के मन का भाव जान लिया.
शिवजी भी व्यथित थे. उन्होंने कैलास पर एक पेड़ के नीचे आसन लगाया और समाधि में चले गए. ब्रह्माजी के मुख से यहां तक की कथा सुनने के बाद नारद के मन में भी बेचैनी हुई.
नारद ने प्रश्न किया- पिताश्री यह तो बड़े दुख की बात थी कि इस तरह कौतुक में ही शिव और शिवा का वियोग हुआ था. उन्हें तो बहुत सारे कार्य संयुक्त रूप से संपन्न करने थे.
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