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उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी जिसका इकलौता पुत्र था. वह अपने बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने गई. बालक ने चन्द्रसेन को श्रद्धाभक्ति से महाकाल की पूजा करते देखा.

बालक की माता ने भक्तिभाव पूर्वक महाकाल की आराधना. उसने बेटे को भी जैसे-जैसे कहा उसने उस तरह से पूजा की. लेकिन उसने पूजा की पूरी विधि देखकर अच्छे से समझ ली.

घर लौटकर उसे शिवजी के पूजन का विचार आया. वह एक सुन्दर-सा पत्थर ढूंढ़कर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर किसी अन्य के निवास के पास एकान्त में रख दिया.

उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर को ही शिवलिंग मान लिया. बालक ने शुद्ध मन से भक्ति भावपूर्वक गन्ध, धूप, दीप आदि जुटाकर अपने द्वारा रखे शिवलिंग की पूजा की.

बालक उस पर फूल पत्ती चढ़ाता, श्रद्धा भाव से दंड़वत प्रणाम करता. उसका चित्त भगवान के चरणों में आसक्त था. उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए उसे बुलाया.
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