सीताजी का रावण ने हरण कर लिया है. भगवान श्रीराम भाई लक्ष्मणजी के साथ वन में सीताजी को खोज रहे हैं. अंतर्यामी प्रभु ने मानवरूप धरा है. इसलिए वह सहज मानव आचरण कर रहे हैं.

त्रिलोक के पालनहारी के मन में अपनी स्त्री के लिए ऐसी प्रीति क्यों उमड़ने लगी! उन्हें अपनी प्रियतमा को वन-वन भटककर क्यों खोजने की आवश्यकता आन पड़ी भला! महादेव प्रभु की लीला समझ भी रहे हैं लेकिन उसी लीला में स्वयं भी वशीभूत हैं.

श्रीराम का मन शोकाकुल है तो महादेव को उसकी अनुभूति कैसे न हो. हलाहल विष को प्रसन्नतापूर्वक कंठ में धारण कर लेने वाले देवाधिदेव महादेव व्यथित हैं. भोलेनाथ सतीजी के साथ श्रीराम के दर्शन को वन में पहुंचे हैं.

चौपाई :
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥

शिवजी ने वन में श्रीराम को देखा और उनके मन को बड़ा आनंद हुआ. भोलेनाथ ने शोभा के सागर श्रीरामचंद्रजी को दूर से ही नेत्र भरकर देखा परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया.

एक तो प्रभु पर विपदा आन पड़ी है, दूसरी प्रभु की गोपनीयता भंग नहीं करनी. महादेव दूर से ही दर्शन करके हर्षित हैं. समीप जाकर औपचारिक भेंट नहीं करते. महादेव और श्रीहरि को इसकी आवश्यकता भी नहीं. दोनों एक दूसरे के हृदयवासी हैं.

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥

जगत को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो. कामदेव का नाश करने वाले महादेव ने आदरपूर्वक इतना कहा और चल पड़े. कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे.

यहां पर तुलसीदासजी ने महादेव के लिए कामदेव का नाश करने वाली उपमा का अद्भुत प्रयोग किया. महादेव स्वयं पत्नी संग जिन श्रीराम के दर्शन को पधारे हैं वह पत्नी के शोक में व्याकुल हैं. महादेव की तो दृष्टिमात्र से कामदेव भस्म हो गए थे.

कामदेव का तात्पर्य मोह से है. अविनाशी परमात्मा मोहग्रस्त हैं. श्रीराम को पत्नी वियोग का मोह है तो महादेव को श्रीराम के दर्शन का मोह. श्रीराम को पत्नी का विरह हुआ तो महादेव का हृदय भी उस पीड़ा की अनुभूति को व्याकुल है. हरि अनंत हरि स्वरूप अनंता.

सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥

सतीजी ने महादेव की ऐसी दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया. वह मन ही मन विचारने लगीं कि जिनकी वंदना सारा जगत करता है, जो देवाधिदेव हैं. देवता, मनुष्य, मुनि सब जिसके सम्मुख शीश नवाते हैं.

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥

उन महादेवजी ने एक राजकुमार को जय सच्चिदानंद संबोधित कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती.

महादेव द्वारा वंदित जीव साधारण क्षत्रियकुमार नहीं हो सकता, किंतु यदि साधारण नर नहीं तो फिर पत्नी के लिए ऐसी व्याकुलता क्यों! महादेव की माया में सतीजी भी फंस गई हैं.

उनके मन में तरह-तरह के जो भाव आ रहे हैं वह महादेव प्रिया, जगतजननी परमेश्वरी के नहीं, अपितु आम स्त्री सुलभ हैं. श्रीहरि को माया में फंसी देख वह हतप्रभ हैं.

दोहा:
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥

जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?

चौपाई:
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥

देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं. फिर ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान्‌ विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?

संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥

फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते. सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं. सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ. किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था. यही तो महादेव की माया है.

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥

यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए. वह बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है. ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए.

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥

जिनकी कथा का गान अगस्त्य ऋषि ने किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं.

छंद :

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं.

उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान श्रीरामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए अपनी इच्छा से रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है.

संकलनः राजन प्रकाश

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