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उन्होंने कहा- पशु तुमने तो भिक्षु को दंड के स्थान पर पुरस्कार दे दिया.

कुत्ता बोला- उसे दंड ही मिला है. आपने दंड का रहस्य नहीं समझा इसलिए ऐसा कह रहे हैं.

कुत्ते ने दंड का रहस्य बताया- मैं पूर्व जन्म में मठ का अधिपति था. हालांकि मैं अतिथियों का सत्कार करने वाला, सबके हित की चिंता करने वाला, प्रभु भक्ति में रमा व्यक्ति था फिर भी कुलपतित्व के दोष से मुझे कुत्ते की योनि मिल गई.

यह भिक्षु तो अत्यंत क्रोधी, क्रूर और मूर्ख है. ऐसी दशा में वहां का कुलपति होना वरदान नहीं बड़ा शाप है.

मठ का अधिपति होने से सात पीढ़ियों को नर्क भोगना पड़ता है. जिसे नरक में गिराना चाहें उसे मठाधीश बना दें.

सभासदों ने पूछा-ऐसा क्यों? कुत्ते ने बताया- मठाधीश देवों के अंश, स्त्रीधन, बालधन और दूसरों के दिए धन का अपहरण करता है.

वह मन से द्रव्यों पर बुरी नजर डालता है इसलिए अवीचिमान नामक घोर नरक का भागी होता है. इसलिए ज्ञानी मुनिजन भूलकर भी मठाधीशी नहीं लेते.

कुत्ते के ज्ञान से प्रभु की संगति में प्रतिदिन बैठने वाले सभासद भी आश्चर्यचकित थे. उन्होंने कुत्ते के पिछले जन्म को प्रणाम किया और कुत्ता चला गया.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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