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राजा बड़ा घमंड़ी था. उसने कौशिक से कहा- बहुत अच्छा गा लेते हो. आज से मेरा गुणगान करने वाले गीत गाया करो. गीत इतना सुंदर हो कि नगरवासी भी अपने राजा की महानता के वे गीत गाएं.

कौशिक ने हाथ जोड़कर कहा- महाराज मेरी जीभ और वाणी केवल भगवान के ही गुणों गाती है, और कुछ भी नहीं. अतः आप मुझे क्षमा करे. यहां तक कि कौशिक के चेलों ने भी राजा की प्रशंसा करने से साफ मना कर दिया.

यह सुनते ही राजा क्रोध से जल उठा. राजा दंड दिया कि सबकी जीभ और कान को लोहे की कील से छेदने का दंड़ दिया. सब जानते थे कि राजा ऐसा कर सकता है इसलिए सबने अपनी-अपनी जीभों और कानों में खुद ही कीलें धँसा ली.

इससे राजा का क्रोध और बढ़ गया. उसने कौशिक के पास जो कुछ भी था सब छीन लिया और चेलों समेत राज्य के बाहर भगा दिया. भारी अपमान के बाद संत कौशिक जान बचाकर अपने दल-बल के साथ उत्तराखंड की ओर चले गए.
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