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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दायां हाथ पकड़कर चले. विद्यापति ने बाईं मुट्ठी में सरसों रख लिया था. रास्ते में वह सरसों छोड़ते हुए गए. काफी देर चलने के बाद विश्वावसु रूके.

विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी. वे एक गुफा के सामने थे. उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा. हाथों में मुरली लिए भगवान श्रीकृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया. विद्यापति आनंदमग्न हो गए. उन्होंने भगवान के दर्शन किए, स्तुति की.

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दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे. विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया तो विवश होकर उठे. फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े.

लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा- क्या आपके प्रदेश में भी हमारे कुलदेवता जैसी प्रतिमा है? क्या आपने ऐसा विग्रह कहीं और देखा है? आप उन्हें किस नाम से जानते हैं, कैसे पूजते हैंं?

ललिता ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर विद्यापति चुप रहे.

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गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना उचित नहीं समझा. विश्वावसु के कुलदेवता ही नीलमाधव भगवान हैं, अब यह  पक्का हो चुका था.

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