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शिवजी ने सूर्यदेव को कहा- हे सप्ताश्ववाहन! काशीपुरी का राजा दिवोदास धर्म विरुद्ध आचरण करे वैसा कोई उपाय करो. परंतु राजा का अपमान मत करना, क्योंकि धर्माचरण में लगे सत्पुरुष का जो अनादर होता है वह अपने ही ऊपर पड़ता है. ऐसा करने से महान पाप होता है. यदि तुम्हारे बुद्धिबल से राजा धर्मच्युत हो जाए तब अपनी दु:सह किरणों से तुम नगर को उजाड़ देना. उसे मैं पुनः बनाऊंगा.

देवता और योगिनियां मिलकर भी दिवोदास के धर्माचरण में कोई छिद्र न ढूंढ सके और असफल होकर लौट आए परंतु आपकी दृष्टि जीवों के अंदर तक झांकने का सामर्थ्य रखती है इसलिए दिवोदास का कोई छिद्र आपसे छूट ही नहीं सकता. मुझे विश्वास है आप यह कार्य जरूर कर सकेंगे.

भगवान भोलेनाथ की आज्ञा शिरोधार्य करके सूर्यदेव काशी गए.

वहां बाहर-भीतर विचरते हुए उन्होंने राजा में थोड़ा-सा भी धर्म का फेर नहीं देखा. वह अनेक रूप धारण करके काशी में रहे.

कभी-कभी उन्होंने नाना प्रकार के कथा-कहानियां सुनाकर काशी के नर-नारियों को बहकाने की चेष्टा की, किन्तु वह किसी को भी धर्म मार्ग से डिगाने में सफल नहीं हुए.

हारकर सूर्यदेव भी बारह आदित्यों के रूप में काशी में स्थापित हो गए. ये सभी काशी में पुण्यस्थल हैं जिनके दर्शन अवश्य करने चाहिएं. उसी तरह चौसठ योगिनियों के भी दर्शन करने चाहिए.

दिवोदास के राज में काशी की प्रजा बहुत सुख चैन से रहती थी. देवताओं, फिर योगिनियों और स्वयं सूर्यदेव के भी असफल रहने पर शिवजी को थोड़ी निराशा हुई. अब उन्होंने ब्रह्माजी को बुलवाया.

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