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भगवान ने जबसे पूतना और तृणासुर का संहार किया तब से माता यशोदा अपने लल्ला को लेकर बहुत चिंतित रहने लगीं. वह उन्हें ज्यादातर अपने सीने से चिपकाए रखतीं. एक पल के लिए ओझल होने न देतीं.
नामकरण संस्कार के लिए गंगाचार्यजी ने बताया कि कंस तरह-तरह से पीड़ा पहुंचाने की कोशिश करेगा तब से माता और चिंतित हो गईं. लल्ला साधारण बालक नहीं है इसका अंदाजा तो पूरे व्रज को हो गया था. गोपियां भी दिनभर उन्हें घेरे रहतीं.
बलराम और श्रीकृष्ण अब थोड़े बड़े हो गए थे. वे अब ठुमकते चलते दूसरे गोपियों के घऱ भी पहुंच जाते. वहां भी तरह-तरह की क्रीडाएं करते जिनसे वे मुग्ध होतीं. सब प्रतीक्षा करतीं कि लल्ला उनके पास आएं.
भगवन ने सोचा क्यों न इनका आनंद थोड़ा और बढ़ाया जाए. वह बालसुलभ क्रीडा करने लगते. कभी किसी की गाय दूह लेते, बछड़े खोल देते तो किसी की मटकी फोड़ देते. कभी मक्खन चुराकर बंदरों को खिला देते.
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