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भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन बहुत प्रिय थे. अर्जुन को अपनी वीरता पर अभिमान होने लगा था जिससे उनकी शक्ति क्षीण हो सकती थी. प्रभु अपने सखा, अपने शिष्य को मार्ग पर लाना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक लीला रची.
जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा था उसी समय रत्नपुरा नरेश महाराज मयूरध्वज का भी अश्वमेध का घोड़ा छूटा था. पांडवों के अश्व रक्षा में अर्जुन के साथ स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण थे जबकि मयूरध्वज का बेटा ताम्रध्वज अपने अश्व के साथ था. दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ.
श्रीहरि की लीला से ताम्रध्वज ने अर्जुन को पराजित कर उनका घोड़ा ले लिया. अर्जुन की जब बेहोशी टूटी तो वह अपने घोड़े के लिए बेचैन हुए और श्रीहरि से लाज रखने की मदद मांगी.
माया से श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ने ब्राह्मण का वेश बनाया और मयूरध्वज के महल मदद मांगने पहुंचे. मयूरध्वज से मदद का वचन लेने के बाद श्रीकृष्ण ने बताया- मेरे पुत्र को सिंह ने पकड़ लिया है.
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