सांदीपनि ऋषि श्रीकृष्ण बलराम सुदामा आदि शिष्यों को शिक्षा देते हुए

योगीराज भगवान श्रीकृष्ण विश्वगुरू हैं. त्रिलोक को ज्ञान प्रदान करते हैं पर संसार में आने पर लोकाचार में उन्हें भी अपना गुरू बनाना ही था. सांदीपनि ऋषि को यह सौभाग्य क्यों मिला? सांदीपनि श्रीकृष्ण के गुरू हुए किस पुण्य प्रताप से?

सांदीपनि ऋषि श्रीकृष्ण बलराम सुदामा आदि शिष्यों को शिक्षा देते हुए

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हमने आपको वसुदेवजी की कथा सुनाई. भगवान श्रीकृष्ण के जनक होने का सौभाग्य उन्हें क्यों मिला, किस अपराध के कारण वह भगवान की उस बाललीला सुख से वंचित रहे जिसका रस लेने सभी देवी-देवता किसी न किसी रूप में ब्रज में निवास करते थे. श्रीकृष्ण विश्वगुरू हैं लेकिन सांदीपनि श्रीकृष्ण के गुरू हैं. त्रिलोकीनाथ मानवरूप में आए तो लोकाचार में उन्हें भी अपना गुरू किसी को बनाना ही था. सांदीपनि श्रीकृष्ण के गुरू बने.

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भगवान के गुरू होने का गौरव मिलना कोई साधारण बात तो नहीं! भगवान ने सांदिपानि ऋषि को अपना गुरू बनाया और उनके आश्रम में रहकर अध्ययन किया. आखिर सांदीपनि ऋषि ने ऐसा क्या पुण्य किया था? जिनके दर्शन, जिनसे शिक्षा लेने के लिए भगवान मथुरा से इतनी दूर उज्जियनी तक गए. भगवान ने सांदीपनि मुनि की गुरू रूप में पूजा की. संसार के समस्त ऐश्वर्य, धन-धान्य की स्वामिनी साक्षात् माता लक्ष्मी जिनकी चरण सेवा करती हैं उन भगवान ने सांदीपनि ऋषि की चरण सेवा की.

आपको सांदिपनी ऋषि के पूर्वजन्म के पुण्यों की कथा सुनाता हूं जिसके कारण मिला उन्हेंं यह सौभाग्य .

संचित पुण्यकर्म ही जीव के भावीजन्मों की गति तय करते हैं. सांदीपनि के पूर्वजन्म के कर्म ही कुछ ऐसे थे कि उसका ऋण चुकाने के लिए भगवान को उनका शिष्य बनना पड़ा. कथा सांदिपानि के बाल्यावस्था से शुरू होती है. किसी भी अन्य ब्राह्णण बालक की तरह सांदीपनि भी अपने गुरु के आश्रम में रहकर अध्ययन किया करते थे.

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सांदीपनि तपोनिष्ठ शिष्य थे. अध्ययन के कार्यों को मनोयोग से पूर्ण करते थे. गुरू पर अखंड विश्वास था. उनका अद्भुत सेवाभाव देखकर गुरु भी चकित थे कि साधारण बालक ऐसा कर्मनिष्ठ कैसे हो सकता है.

गुरु को प्रतीत होता कि यह कोई साधारण बालक नहीं है. सभी विद्यार्थियों में सांदिपानि की गुरूभक्ति विशेष थी. गुरु ने सोचा कि इस बालक की परीक्षा लेकर देखा जाए तो सत्य प्रत्यक्ष हो कि आखिर यह है कौन!

परीक्षा लेने का उचित अवसर गुरु तलाश रहे थे. एक दिन वह अवसर मिला. आश्रम के अन्य विद्यार्थी बाहर गए हुए थे. गुरु का बालक वहीं खेल रहा था. जब गुरु ने देखा कि अन्य विद्यार्थी आश्रम की ओर चले आ रहे और बस आश्रम में प्रवेश करने को ही हैं तो उन्होंने सांदीपनि को पुकारा.

सांदीपनि गुरु सेवा में पहुंचे तो गुरू ने अपने पुत्र की ओर संकेत करते हुए कहा- सांदीपनि मेरे पुत्र को तत्काल कुएं में फेंक दो. यह मेरा आदेश है.

सांदिपानि ने गुरू के आदेश का पालन किया. बालक को उठाकर कुएं में डाल दिया. अन्य विद्यार्थी आश्रम में प्रवेश कर ही रहे थे. उन्होंने गुरुपुत्र को संकट में देखा तो दौड़ते-भागते आए.

कुएं का जल नजदीक ही था. तत्काल दो विद्यार्थी उसमें कूदे और अन्य साथियों की सहायता से बालक को सुरक्षित बाहर निकाल लाए. उसके बाद उन्होंने सांदिपानि को गुरूद्रोही समझकर खूब पिटाई की.

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सांदिपानि आश्रम के संगियों की मार सहते रहे पर यह नहीं बताया कि ऐसा स्वयं गुरुजी का आदेश था. उन्हें लगा कहीं विद्यार्थी आवेश में गुरुदेव को कुछ न बोल पड़ें इसलिए मार सहते रहे. गुरुजी दूर से छिपकर यह सब देख रहे थे. कुछ देर में वह आए और विद्यार्थियों को यह कहकर रोका कि इसे मत मारो, यह मूर्ख तुम्हारा गुरुभाई है.

गुरूजी की परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुई थी.

एक दिन विद्यार्थी कहीं से आ रहे थे. उनको आते देखकर गुरुजी ने सांदिपानि से कहा- सांदीपनि आश्रम के इस छप्पर में आग लगा दो.

सांदिपानि ने चट आग लगा दी. छप्पर जलने लगा. विद्यार्थियों ने दौड़कर आग तो बुझा दी पर क्रोध से तमतमाए फिर सांदिपानि को मारने लगे. सांदिपानि कुछ बोले नहीं और चुपचाप मार सहते रहे.

गुरुजी को दया आ गई. उन्होंने विद्यार्थियों को रोका.

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सांदिपानि गुरु की हर आज्ञा को अक्षरशः तुरंत पूरी करते थे. जब विद्याध्यन समाप्त हुआ, तब विद्यार्थी अपने अपने घर चले गए. उनमें से कुछ विख्यात पंडित बन गए. सांदिपानि भी अपने घर चले गए.

एक दिन गुरुजी बहुत बीमार पड गए. उनकी बीमारी का समाचार सुनकर सारे शिष्य उनके दर्शन के लिए आये. विद्यार्थियों ने गुरुजी की सेवा की. गुरु के शरीर छोड़ने का समय आया तो उन्होंने अपने शिष्यों को अपनी कुछ-कुछ वस्तुएं प्रदान कीं.

किसी को उन्होंने पंचपात्र दिया, किसी को आचमनी दे दी. किसी को अपना आसन दे दिया, किसी को माला दे दी. किसी को गोमुखी दे दी. इस प्रकार गुरुजी के पास जो भी संपत्ति शेष थी वह उन्होंने शिष्यों में बांटी.

शिष्यों ने भी उन वस्तुओं को बड़े आदर से लिया कि यह गुरूजी की प्रसादी है!

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जब सांदिपानि गुरु के सामने आए तो गुरुजी चुप हो गए.

फिर बोले- पुत्र सांदीपनि! मैं तुमझे क्या दूँ? अब तो कोई वस्तु मेरे पास शेष है ही नहीं देने को. तुम्हारी जो गुरुभक्ति है, उसके समान मेरे पास कुछ नहीं है. मैं तुम्हें कुछ ऐसा प्रदान करता हूं जिसके लिए संसार लालायित रहता है.

गुरूदेव ने कहा- मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि पृथ्वी के कष्टों का उद्धार करने के लिए त्रिलोकीनाथ भगवान का शीघ्र ही अवतार होने वाला है. वह भगवान तुम्हारे शिष्य बनेंगे!

सांदिपनी के लिए इससे बड़ी भेंट, इससे बड़ा वरदान क्या होता! उन्होंने गुरूजी की अंत समय में भी बड़ी सेवा की. भगवान ने जब श्रीकृष्ण अवतार लिया तो ऋषिवर के दिए वरदान को फलीभूत करने वह मथुरा से उतनी दूर उज्जैन स्थित सांदिपनी ऋषि के आश्रम में बलरामजी के साथ आए और इनके शिष्य बने!

गुरु एवं श्रेष्ठ पुरूषों की सबसे बड़ी सेवा है. उनकी आज्ञा का पालन करना. गुरू की आज्ञा पालन करने से उनकी शक्ति हमारे अंदर आ जाती है. ईश्वर पहले देखते हैं कि गुरू कैसा है, फिर देखते हैं कि शिष्य गुरू की कसौटी पर खरा उतरा क्या! यदि हां तो वह ईश्वर का चहेता हो जाता है.

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