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इस घटना के थोड़ा समय बीत जाने के बाद दक्ष ने महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुलवाया, पर अपनी प्रिय पुत्री सती एवं शिव को नहीं. सती का स्त्री-सुलभ मन न माना और मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यहाँ गई. पर पिता द्वारा शिव की अवहेलना से दु:खित होकर सती ने योगाग्निन में अपना शरीर त्याग दिया.

जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र को प्रकट किया. उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला. शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया. जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन चक्र से शव का एक-एक अंश काट दिया. शवविहीन होकर शिव शांत हुए.

जहां भिन्न-भिन्न अंग कटकर गिरे वहां शक्तिपीठ बने. ये 52 शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं.

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सती के शरीर के टुकड़े मानो इस मिटटी से एकाकार हो गए-सती मातृरूपा भरतभूमि है. यही सती अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती हुई. शिव के उपासक शैव, विष्णु के उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी) के उपासक शाक्त कहलाए. शिव और सती को लोग पौरुष एवं मातृशक्ति के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं. इस प्रकार का अलंकार प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में आता है. यह शिव-सती की कहानी शैव एवं शाक्त मतों का समन्वय भी करती है.

शिवजी का पार्वतीजी के साथ विवाह हुआ. इस तरह से विवाह परंपरा की अन्य रस्में भी तय होती चली गईं.

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