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भगवान श्रीकृष्ण की जितनी भी रानियां हैं सब की सब श्रीराधाजी के ही अंश का विस्तार है. राधाकृष्ण एक हैं. उनका परस्पर संयोग है और उन दोनों का प्रेम ही वंशी है.

तुम सब का भी श्रीकृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है क्योंकि यह संभव नहीं है. भगवान जिसे अपनाते हैं उसे कहां छोड़ते हैं? किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में नहीं जानती हो इसलिए इतनी व्याकुल हो रही हो.

यमुनाजी आगे बोलीं- जब अक्रूरजी श्रीकृष्ण को मथुरा ले गए थे तब गोपियों को भी ऐसी ही विरह-वेदना महसूस हुई थी. वह भी वास्तविक विरह नहीं था. प्रभु से विरह कहां! वह तो विरह का आभास मात्र था.

ये बातों गोपियां तो जानती नहीं थीं. जब प्रभु के मित्र उद्धवजी व्रज में आए और उन्होंने समझाया तब गोपियां इस बात को समझीं. यदि तुम्हे भी उद्धवजी का सत्संग प्राप्त हो जाए तो तुम भी श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी.

रानियाँ बोली- सखी! तुम्हारा जीवन धन्य है क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पडता. अब ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे उद्धव जी से शीघ्र भेंट हो जाए.

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