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अब पांचो लोग हाथ में हाथ डाले महल की ओर चल पड़े. वहां पहुंचकर चारों भाइयों ने महाराज को प्रणाम किया. उसी तरह निषाद ने भी उन्हें प्रणाम किया. प्रभु ने परिचय कराया- पिताजी यह मेरा मित्र है.

निषाद आयु में छोटा था लेकिन बुद्धि में कम न था. उसने जब सुना कि च्रकवर्ती सम्राट के पुत्र छोटी सी भेंट के बाद ही मुझे अपना मित्र मानने लगे हैं, तो भाव-विभोर हो गया. उसकी आंखों में आंसू आ गए. प्रभु का हृदय तो स्नेह का अथाह सागर ही है.

राजा दशरथ ने भी पुत्र की उदारता देखा तो बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने समझ लिया कि निषाद के साथ ये चारों भाई प्रसन्न रहते हैं. इसलिए दशरथ ने निषाद को अयोध्या में धनुर्विद्या सिखाने के बहाने रोक लिया और बूढ़े निषाद को सूचना कर दी.

एक बार वन विहार से लौटने पर प्रभु राम द्वारा निषाद की बड़ी प्रशंसा की गयी. उसी समय राजा दशरथ ने निषाद को अपने सीने से लगा लिया और अपने हाथ का कंगन पहनाते हुए शृंगवेरपुर का राजा बना दिया.

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