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दोहा :
सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए हैं. मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और नासमझ होती है.

सोरठा :
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी दूध के साथ मिलकर दूध के भाव में बिकता है, परन्तु यदि उसमें कपट रूपी खटाई पड़ जाए तो दूध और पानी का बिछोह हो जाता है. दूध फट जाता है और उसकी मधुरता यानी प्रेम जाती रहती है.

अज्ञानतावश ही सतीजी ने महादेव के प्रेम, विश्वास और वाणी पर शंका की. समझाने पर भी श्रीराम के परमात्मा होने पर शंका की और फिर उनकी परीक्षा लेने के लिए सीताजी का ही रूप धर लिया. महादेव के लिए अब सती त्याग योग्य हो गई हैं.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

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