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दोहा :
बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥

वेदशिरा मुनि ने आकर सबको भली प्रकार से पार्वतीजी की महिमा को समझाया. पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबकी शंकाओं का समाधान हो गया है.

चौपाई :
उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥

प्राणनाथ भोलेनाथ के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर घोर तप करने लगीं. पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों का त्याग कर दिया.

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥

तप करने से स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध ही बिसर गई. एक हजार वर्ष तक पार्वतीजी ने फल-मूल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए.

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥3॥

कुछ दिन जल और वायु को ही आहार की तरह ग्रहण किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए. जो बेलपत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाकर तप किया.
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