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इसके अलावा देवी की वह थकावट किसी भी उपाय से दूर नहीं हो सकती. कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्रीहरि का यशगान ही करते हैं.

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

भावार्थ:- संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी यह विचारकर पछताने लगती हैं कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई? बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं.

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥

भावार्थ:- इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता होती है.

दोहा:
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

भावार्थ:- उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुंदर धागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है. वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं.

चौपाई :
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥

भावार्थ:- जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के घड़े हैं.

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