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सुतीक्ष्ण महर्षि अगस्त्य के शिष्य थे. गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे. अध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरूजी ने कहा- तुम्हारा अध्ययन समाप्त हुआ, अब तुम विदा हो सकते हो.
सुतीक्ष्ण ने कहा- गुरुदेव! मैं गुरुदक्षिणा के रूप में क्या दूं जो आपको प्रिय हो. आप मेरे लिए कुछ आज्ञा करें.
अगस्त्य ने कहा- तुमने मेरी बहुत सेवा की है. तुम्हारे जैसा श्रेष्ठ गुरुभक्त शिष्य मिलना भी एक बड़ी बात है. सेवा से बढकर कोई भी गुरुदक्षिणा नहीं, अत: जाओ, सुखपूर्वक रहो.
सुतीक्ष्ण ने आग्रहपूर्वक कहा- गुरुदेव! बिना गुरुदक्षिणा दिए शिष्य की विद्या फलीभूत नहीं होती. सेवा तो मेरा धर्म ही है. आप किसी अत्यंत प्रिय वस्तु के लिए आज्ञा अवश्य करें.
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