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अगस्त्य ने कि इस निष्ठावान शिष्य की परीक्षा जरूर लेने चाहिए. उन्होंने कहा- सुतीक्ष्ण तुम गुरुदक्षिणा के रूप में मुझे सीतारामजी को साक्षात मेरे आश्रम में लाकर दो.
सुतीक्ष्ण गुरूजी के चरणों में प्रणाम करके जंगल की ओर चल दिया और वहां जाकर घोर तपस्या करने लगे. वह पूरे मन से गुरुमंत्र का जप, रामनाम के कीर्तन एवं ध्यान में मगन रहने लगे.
जैसे-जैसे समय बीतता गया. सुतीक्ष्ण के धैर्य, गुरु-वचन को पूरा करने के लिए निष्ठा और दृढ़ता में बढ़ोत्तरी होती चली गई. कुछ समय बाद भगवान श्रीराम सीता मैया और लक्ष्मणजी के साथ वहां पहुंचे जहां सुतीक्ष्ण ध्यानलीन बैठे थे.
रामनाम के ध्यान में डूबे सुतीक्ष्णजी के शरीर में तो अपनी आत्मा की जगह राम का नाम दौड़ रहा था. उनके शरीर का रुधिर रामनाम का हो गया था. प्रभु के ध्यान में खोए सुतीक्ष्णजी अचेतावस्था जैसी स्थिति में रहते थे.
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