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मैंने फिर भी रक्षण हेतु वज्रघन्टा-गणिका का एक मंत्र पढ़ स्वयं को सुपोषित कर लिया।  शरीर में आवेश सा दौड़ गया। वहाँ गणिका मेरे समक्ष रौद्र रूप में प्रकट हुई।  परन्तु क्रिताक्षिका की दिव्य-माला की दमक के समक्ष ठहर नहीं सकी और लोप हो गयी।
तभी मेरे इर्द-गिर्द कुछ कन्याएं खड़ी दिखायीं दीं।  ये नाग-कन्याएं ही थीं। वे सभी नाग-कन्याएं जिनको बाबा सोनिला ने क़ैद किया हुआ था।
सभी भयभीत। निर्बल और निस्तेज। मुझे दया आयी।

मैंने गिना, ये कुल चौबीस थीं। लेकिन कोई भी नाग-पुरुष नहीं था। सच में बहुत क्रूरता ढाई थी बाबा सोनिला ने उन पर। अपने तंत्र-मंत्र का अनुचित और अन्यायिक उपयोग किया था बाबा ने।
वैसे तो नाग-कन्या अथवा नाग-पुरुष मानव के पास आने से कतराते हैं, लेकिन यदि नजदीकी हो जाए तो सदैव वफादार रहते हैं।  शीघ्र ही विश्वास करने लगते हैं। इसी निकटता का अनुचित लाभ उठाया था बाबा सोनिला ने।

मध्य भारत, पूर्वी भारत, म्यांमार देश, श्री लंका, दक्षिण भारत आदि में ऐसे कई स्थान हैं जहां कभी कभार मनुष्य का इन नाग-कन्यायों अथवा नाग-पुरुषों का सामना हो जाता है। बाबा मुझे बस अपनी शक्ति दिखाना चाहता था, मेरा ध्यान भटकाने के लिए।
जब मैं इन नागकन्याओं को देख रहा था। तभी अचानक सोनिला बाबा शून्य से प्रकट हुई औरतामशूल-मंत्र का संधान कर मुझे खड़े खड़े फूंकने के लिए सर्प-दंड अभिमंत्रित करके मुझ पर फेंक मारा।
चिंगारियां फूटी मेरे शरीर से टकरायीं। लेकिन मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। मेरे द्वारा जागृत ऐवांग-मंत्र ने मेरी रक्षा की थी। अब देर हो रही थी। मुझे इस खेल का अंत करना था।
“दुमुक्ष?” मैंने आवाज़ लगायी। स्वतंत्र होने के लिए तत्पर हो जाओ।” मैंने कहा।

बाबा के होश उड़े अब। मुझे क्रोध आ गया था।
अब मैं आसान पर बैठा। एक महागण की तेइसवीं गणिका का आह्वान किया। इसका नाम है वपुधारिणी। जैसा नाम वैसा काम। ये पञ्च-तत्वधारी के लिए कार्य करती है।  अब पहली बार बाबासोनिला को भय ने सताया।
दुमुक्ष वाला झोला पेट से खोलकर उसने गले में धारण कर लिया।
और मैंने अब आरम्भ किया आह्वान।

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