महादेव के गणों में वीरभद्र का स्थान प्रमुख है. वह शिवगणों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं और परम शक्तिशाली हैं. उनका जन्म दक्षयज्ञ ध्वंस के लिए हुआ था. उससे अतिरिक्त वीरभद्र के कई और स्वरूप हैं. आपको आज प्रमुख शिवयोद्धा वीरभद्र से परिचित कराएंगे.

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वीरभद्र का जन्म ही महारुद्र की आज्ञा के पालन के लिए हुआ था. वह परमेश्वर के रौद्र स्वरुप हैं. प्रजापति दक्ष ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उसमें परमेश्वर सदाशिव को आमंत्रित नहीं किया, जो कि उनके जामाता भी थे.

पति से जिद करके शिवपत्नी सती अपने पिता के घर गईं, वहां अपने पति के लिए स्थान न पाकर उन्हें दुख हुआ. उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवताओं को खरी-खोटी सुनाई और स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर लिया. इससे क्रोधित देवाधिदेव ने अपनी जटा उखाड़ी थी और इसे पर्वत पर पटक दिया था. अत्यधिक शक्ति से भरी वो जटा दो टुकड़ों में टूट गई और उससे वीरभद्र उत्पन्न हुए.

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वीरभद्र के स्वरूप का वर्णन भागवत पुराण में किया गया है-

क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिसटोग्ररोचिषम्।
उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं। – श्रीमद्भागवत -4/5/1

(वीरभद्र देखने में प्रलय की अग्नि के समान प्रतीत होते थे. उनका शरीर इतना ऊंचा था कि वह स्वर्ग को स्पर्श कर रहा था. एक हजार भुजाओं से युक्त, सूर्य के समान जलते हुए तीन नेत्र वाले थे. विकराल दाढ़ें थीं और अग्नि की ज्वालाओं की तरह लाल-लाल जटाएं थीं. गले में नरमुंडों की माला तो हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र थे।)

वीरभद्र ने यज्ञ-स्थुल पर पहुंचकर धर्म, सूर्य, अग्नि ,वायु ,यम ,निर्ऋति, वरूण, कुबेर, नौ ग्रह, आठ वसु, इन्द्र ,बारह आदित्य्, विश्व देवा, साध्‍य, सिद्ध, गन्ध‍र्व ,पन्न‍ग, गुहयक ,लोकपाल , यक्ष , किंपुरूष ,पूषा के उत्पन्न किए भूत, खग, चक्रवर, सूर्यवंशी, चन्द्रहवंशी नृपगण आदि सभी को पराजित किया.

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वीरभद्र का पराक्रम ऐसा था कि ऋषिगण उसे देखने की हिम्मत नहीं कर सके और भाग खड़े हुए. स्वयं यज्ञ मृग बनकर भागा तो वीरभद्र ने उसका शीश काट दिया. पूषा के दांत तोड़ दिए, सरस्वती तथा अदिति की नाक छेद डाली.

सब श्रीविष्णु की शरण में पहुंचे. सबकी रक्षा के उददेश्य से उन्होंने वीरभद्र से युद्ध किया लेकिन वीरभद्र ने सुदर्शन चक्र को ही निगल लिया. क्रोध से वशीभूत श्रीविष्णु ने शस्त्र धारण करके वीरभद्र को मारना चाहा जिसे वीरभद्र ने स्तम्भित कर दिया. विष्णु ने जान लिया कि वीरभद्र को पराजित करना संभव नहीं है, वीरभद्र परमेश्वर की इच्छा से यहां आए हैं. उनका तेज प्रबल है, तब विष्णु वहां से अंतर्ध्यान हो गए.

इस पूरे महायुद्ध के कारण दक्ष प्रजापति भय के मारे यज्ञकुंड के पास छिपे हुए थे. दक्ष ने योगबल से अपने सिर को अभेद्य बना लिया था. तब वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रख दोनों हाथों से गर्दन मरोड़कर दक्ष का सिर शरीर से अलग कर अग्निकुंड में डाल दिया था.

महादेव का आदेश पूरा हुआ और वीरभद्र शिवजी की शरण में चले गए. हालांकि बाद में आशुतोष शिव ने दक्ष को बकरे का सिर लगाकर जीवित किया और यज्ञ भी पूरा करवाया.

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दक्षिण भारत में भगवान वीरभद्र के प्राकट्य की अलग कथाः

इसके अतिरिक्त वीरभद्र से जुड़ी दूसरी कहानी मिलती है, दक्षिण भारत के ग्रंथों में. इसके मुताबिक नृसिंह रूप में भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु का वध किया. हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद नृसिंह भगवान क्रोध से भर उठे, उनका क्रोध शांत ही नहीं हो रहा था. अपने भयंकर रूप में नृसिंह भगवान संसार का अंत करने के लिए तत्पर हो रहे थे.

इससे तीनों लोक भयभीत हो रहा था. सृष्टि की रक्षा के लिए जब देवतागण भगवान शिव के पास पहुंचे. शिव ने नृसिंह का क्रोध समाप्त करने के लिए एक अनोखे जीव की रचना की.उन्होंने अपने प्रमुख गण वीरभद्र के शरीर में विष्णु के वाहन गरुड़ की शक्ति जोड़ी और साथ में देवी के वाहन सिंह की भी विशेषताएं साथ में भर दीं. इस स्वरूप को शरभ कहा गया.

उपनिषद् में उल्लेख है कि नृसिंह को वश में करने के लिए वीरभद्र गरूड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण करके प्रकट हुए और शरभ कहलाए.

शिव ने शरभ से कहा कि नृसिंह क्रोध में भरकर संसार को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराओ और उनसे निवेदन करो कि वह ऐसा न करें. यदि आवश्यकता हो तो तभी युद्ध करना.

शरभ स्वरूप वीरभद्र नृसिंह के पास पहुंचे और पहले विनीत भाव से शांत करने की कोशिश करने लगे लेकिन जब नृसिंह नहीं माने तब वीरभद्र रूपी शरभ ने युद्ध शुरु किया.

विष्णुवाहन गरुड़ की शक्ति से शरभ ने नृसिंह को अपने पंजे से उठा लिया और चोंच से वार करने लगा. शरभ के वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया और शिव से निवेदन किया कि इनके चर्म को शिव अपने आसन के रूप में स्वीकार करें. इसके बाद नृसिंह भगवान विष्णु के तेज में मिल गए और शिव ने इनके चर्म को अपना आसन बना लिया.

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वीरभद्र का रूप उग्र है. कई तांत्रिक पद्धतियों से उनकी उपासना भी प्रचलित है. दक्ष यज्ञ ध्वंस के बाद वो कई इलाकों में क्षेत्रपाल के रुप में पूजे जाते हैं. हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में वीरभद्र के कई मंदिर हैं.

कई बड़े ज्योतिर्लिंगों के पास भी प्रमुख गणों में से एक वीरभद्र का मंदिर मिलता है. इसमें से लेपाक्षी मंदिर की तो कहानी ही अद्भुत है. यह मंदिर आंध्र प्रदेश के अनंतपुर गांव में स्थित है. ये मंदिर, दक्षिण भारत में काफी विख्यात है और यहां सारे देश से दर्शनार्थी दर्शन करने आते है. इस मंदिर में भगवान वीरभद्र की पूजा की जाती है. वीरभद्र मंदिर को 16 वीं शताब्दीं में विजयनगर के राजा ने बनवाया था.

यह रहस्यमयी मंदिर है, जिसकी गुत्थी दुनिया का कोई भी इंजीनियर आज तक सुलझा नहीं पाया. ब्रिटेन के एक इंजीनियर ने भी इसे सुलझाने की काफी कोशिश की थी, लेकिन वह भी नाकाम रहा. मंदिर का रहस्य इसके 72 पिलरों में एक पिलर है, जो जमीन को नहीं छूता. यह जमीन से थोड़ा ऊपर उठा हुआ है और लोग इसके नीचे से कपड़े को एक तरफ से दूसरे तरफ निकाल देते हैं.

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तत्काल फल देने वाली है वीरभद्र साधनाः

शिव अवतार वीरभद्र की पूजा-उपासना असाध्य कष्ट दूर करने वाली कही जाती है. वीरभद्र, भगवान शिव के परम आज्ञाकारी हैं. उनका रूप भयंकर है, देखने में वे प्रलयाग्नि के समान, हजार भुजाओं से युक्त और मेघ के समान श्यामवर्ण हैं. सूर्य के तीन जलते हुए बड़े-बड़े नेत्र एवं विकराल दाढ़ें हैं. शिव ने उन्हें अपनी जटा से प्रकट किया था. इसलिए उनकी जठाएं साक्षात ज्वालामुखी के लावा के समान हैं. गले में नरमुंड माला वाले वीरभद्र सभी अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं. उनका रूप भले ही भयंकर और डराने वाले है पर शिवस्वरूप होने के कारण वे परम कल्याणकारी हैं. शिवजी की तरह शीघ्र प्रसन्न होने वाले है.

वीरभद्र साधना का फलः

वीरभद्र उपासना तंत्र में वीरभद्र सर्वेश्वरी साधना मंत्र आता है. यह एक स्वयं सिद्ध चमत्कारिक तथा तत्काल फल देने वाला मंत्र है. स्वयंसिद्ध मंत्र होने के कारण इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती.  अचानक कोई बाधा आ जाए, दुर्घटना का भय हो, कोई समस्या बार-बार प्रकट होकर कष्ट देती हो, कार्यों में बाधाएं आती हों, हिंसक पशुओं का भय हो या कोई अज्ञात भय परेशान करता है तो वीरभद्र सर्वेश्वरी साधना से उससे तत्काल राहत मिलती है.

यह तत्काल फल देने वाला मंत्र कहा गया है.  यदि बार-बार किसी चीज से भय होता हो तो इस मंत्र का पूरी श्रद्धा से सात बार जप कर लेने से वह भय भाग जाता है.

वीरभद्र उपासना मंत्रः

ॐ हं ठ ठ ठ सैं चां ठं ठ ठ ठ ह्र: ह्रौं ह्रौं ह्रैं क्षैं क्षों क्षैं क्षं ह्रौं ह्रौं क्षैं ह्रीं स्मां ध्मां स्त्रीं सर्वेश्वरी हुं फट् स्वाहा 

–यदि पशुओं से या हिंसक जीवों से प्राणहानि का भय हो तब मंत्र के सात बार जप से निवारण हो जाता है.

–यदि आपको कोई बात बार-बार भयभीत करती है तो इस मंत्र का जप कर लिया करें. तुरंत राहत दिखेगी.

–यदि मंत्र को एक हज़ार बार बिना रुके लगातार जप लिया जाए तो स्मरण शक्ति में अद्भुत चमत्कार देखा जा सकता है.

–यदि मंत्र का जप बिना रुके लगातार दस हजार बार कर लिया जाय तो त्रिकालदृष्टि यानी भूत, वर्त्तमान, भविष्य के संकेत पढ़ने की शक्ति आने लगती है.

–मंत्र का बिना रुके लगातार लक्षजप यानी एक लाख जप रुद्राक्ष की माला से करने पर खेचरत्व और भूचरत्व की प्राप्ति हो जाती है. इसके लिए लाल वस्त्र धारण करके, लाल आसन पर विराजमान होकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके शुद्ध जप किसी गुरू के देखरेख में होना चाहिए.

सावधानियांः

वीरभद्र साधना तत्काल फलदायी है तो इसमें कुछ विशेष सावधानियां भी हैं. इनका पालन नहीं करने पर अपना अनिष्ट हो सकता है.

इस साधना को हंसी-खेल ना समझे. न ही इसे हंसी ठठ्ठे में प्रयास करना चाहिए. आवश्यकता पड़ने पर ही और स्वयं या किसी अन्य के कल्याण के उद्देश्य से ही होना चाहिए. किसी को परेशान करने के उद्देश्य से होने पर उल्टा फल होगा.  महिलाओं के लिए यह साधना वर्जित है. 

संकलनः पं. अंशुमान आनंद

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