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व्यास जी की कृपा से उन्होंने पुराणों-शास्त्रों का गहन अध्ययन किया और कई ग्रन्थों की रचना की. रोमहर्षण की गिनती पुराण के विद्वानों में होने लगी. एक बार कई हजार ऋषियों ने मिलकर नैमिषारण्य में एक बहुत बड़ा यज्ञ-सत्र किया. यज्ञ-सत्र एक हजार दिनों का होता है. इसमें कई “ऋत्विक” तथा “होता” होते हैं. इस यज्ञ के मुख्य यजमान बनाए गए शौनक ऋषि, जो व्यासजी के शिष्य थे.

चूंकि ऐसे यज्ञ हजार दिनों तक चलते हैं इसलिए इसमें आहुति डालने तथा मन्त्र-पाठ का काम प्रतिदिन थोड़े ही समय का होता है. फिर ऋत्विकों के पास प्रतिदिन काफी समय खाली बचा रहता है. इस यज्ञ में भाग लेने वाले ऋषियों के साथ एक बाध्यता है कि वे न तो यज्ञ-स्थल से कहीं जा सकते हैं और न ही कोई लौकिक काम जैसे परिवार के साथ समय बिताना या अन्य कार्य कर सकते हैं.

ऐसे में ऋषियों के लिए खाली समय बिताना कठिन हो गया. सारे ऋषियों ने मिलकर विचार किया कि खाली समय को बिताने के लिए भगवान वेद व्यास द्वारा रचित पुराणों पर चर्चा की जाए.

व्यास जी बड़े प्रसन्न हुए. व्यासजी ने कहा कि इस कथा का ज्ञान प्रदान करने के लिए यहां सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं- मेरे शिष्य रोमहर्षण. पुराण का ज्ञान प्राप्त करके आनंदित होना है तो आप लोग रोमहर्षण की सहायता लें. उन्हें यज्ञ-स्थल पर आसन दीजिए और उनके मुख से पुराणों पर नवीन ज्ञान प्राप्त करें.

व्यास जी की ऐसी बात सुनकर कुछ ऋषियों ने कहा- भगवन्! आपका आदेश शिरोधार्य है परंतु रोमहर्षण तो सूत जाति के हैं? उन्हें गद्दी पर कैसे बैठाया जा सकता है?
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