एक बार राजा परीक्षित ने शौनक जी से पूछा. मुनिवर मैंने सुना है सहस्त्रबाहु ने अपने गुरु भगवान दत्तात्रेय जी की कृपा और अपने भुजबल से जम्बू , प्लक्स , शल्मली, क्रुश, क्रौच, शाक और पुष्कर नाम के सातों द्वीप जीत लिए थे.

सहस्रबाहु को सप्तदीपेश्वर की उपाधि भी मिली और उन सातों द्वीपों में सात सौ यज्ञ भी किए. ज्ञानी भी थे पर परशुराम से हुई लड़ाई में उनका सर्वस्व नष्ट हो गया. क्या उनके गुरु ने उन्हें विनाश की राह पर जाने से नहीं रोका?

शौनक जी ने कहा- कार्तवीर्य अर्जुन ने मुनिवर दत्तात्रेय की खूब सेवा की और अपना सारा साम्राज्य उनकी सेवा में समर्पित कर दिया. यह देख मुनिवर दत्तात्रेय ने उससे वर माँगने को कहा.

कार्तवीर्य ने हजार हाथ मांग लिए. गुरु दत्तात्रेय ने कहा ऐसा ही होगा. पर यह याद रखना कि अपने इस बल पर अभिमान न करना. पर जल्द ही कार्तवीर्य सब भूल कर अभिमान में भर गया.

तभी आकाशवाणी हुई- राजा का कार्य है प्रजा के हित को सर्पोवरि मानना. उसे इस कार्य में ब्राह्मणों के सहायता की सहायता की जरूरत होती है. ब्राह्मणों के प्रति सम्मान रखो. राजा समस्त प्रजा का पालक होता है चाहे वह किसी वर्ण की हो. किसी में भेद मत करना.

उत्तर में कार्तवीर्य ने कहा- प्रजा राजा के अधीन है. उसकी कृपा पर आश्रित है. ब्राह्मणों की आजीविका राजा चलाते हैं. वैश्य और शूद्र उसकी कृपा पर पलते हैं. मैं सबको अपने अधीन रखूंगा. मुझे किसी के परामर्श की क्या आवश्यकता? मुझसे ज्यादा ज्ञान अब संसार में किसके पास है?

अन्तरिक्ष में वायुदेव ने कार्तवीर्य के कानों में कहा- कार्तवीर्य! तुम इस सोच को त्याग दो. सबका सम्मान करो. यदि इसी तरह ब्राह्मणों का अपमान करोगे तो तुम अपना राज्य खो बैठोगे.

कार्तवीर्य बोला- महानुभाव! वे अधिकतर भय खाने वाले, लालची और क्रोधी होते हैं. आप बेकार ही ब्राह्मणों का पक्ष ले रहे हैं. आपकी जानकारी में पृथ्वी के समान कोई क्षमाशील ब्राह्मण हो तो मुझे बताइए.

तो परीक्षित, अपनी बात को साबित करने के लिए वायुदेव ने कार्तवीर्य को एक कथा सुनायी. महर्षि अगिरा के वंश में उत्पन्न परम तपस्वी महर्षि उतथ्य धर्म के ज्ञाता, तपस्वियों में श्रेष्ठ थे. उनकी तपस्या से प्रभावित होकर सोम की पुत्री भद्रा ने पति रूप में पाने के लिए तपस्या करने लगी.

सोम ने भी देखा कि महर्षि उतथ्य योग्य वर हैं, तो उन्होंने उनके पिता महर्षि अंगिरा से बात कर भद्रा की उनसे शादी कर दी. भद्रा को वरूण देव प्रेम करते थे. वह अपनी बात सोमदेव से कहते उससे पहले ही विवाह तय हो गया था. वरूण इससे क्रोध में थे.

विवाह के पश्चात् भद्रा और उतथ्य दोनों नदी के किनारे आश्रम बनाकर रहने लगे. एक बार भद्रा स्नान को जा रही थी, तभी वरुणदेव ने उसका अपहरण कर लिया. नारद जी ने उतथ्य को बताया कि वरुणदेव ने आपकी पत्नी का अपहरण कर लिया है.

उतथ्य बड़े क्रोधित हुए और नारदजी से बोले, आप उसे समझाइये कि यह अनैतिक है? नारदजी ने वरुण से कहा कि आप महर्षि उतथ्य की भार्या को छोड़ दीजिए. परस्त्री का अपहरण पाप और अपराध है. वरुण, बोला, मैं भद्रा को न दूंगा, उसने नारद का अपमान भी किया.

उतथ्य नाराज हो अपने तेज से धरती का सारा जल पीने लगे. जब सब जल पीया जाने लगा तब सुहृदों ने वरुणदेव से कहा कि आप परस्त्री को छोड़ दीजिए पर वरुण अपने अभिमान में अपनी जिद कर अड़े रहे.

सारी पृथ्वी जल से खाली हो गयी, सरस्वती अदृश्य होकर मरु प्रदेश में चली गयी. सारा देश सूख गया, तब वरुणदेव भद्रा को साथ लेकर मुनि की शरण में आये और उनसे क्षमायाचना की. सम्मान और आदर के साथ मुनिवर उतथ्य को उनकी भार्या सौंप दी.

अपनी प्रिय पत्नी को पाकर उतथ्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने पृथ्वी तथा वरुण को फिर से जल से परिपूर्ण कर दिया. यह कथा सुनाकर वायुदेव बोले- कार्तवीर्य! अपनी स्त्री के अपहर्ता को क्षमा कर देने वाले उतथ्य से यदि श्रेष्ठ कोई क्षमाशील क्षत्रिय तुम्हारी दृष्टि में हो तो मुझे बताओ.

शौनकजी बोले- वायुदेव के ऐसा कहने पर राजा कार्तवीर्य अर्जुन चुपचाप बैठे ही रहे, कुछ भी बोल न सके. सच तो यह है कि देवताओं और ऋषियों से वरदान पाकर वे उन्हीं को तुच्छ समझने लगते है.

भगवान दत्तात्रेय सिद्धि दाता हैं. अपने साधकों को दिव्य वरदान देते हैं परन्तु यही शर्त रखते हैं कि वरदान पाकर अहंकार मत करना वरना तुम्हारे अस्तित्व का विनाश हो जायगा.

जिन-जिन साधकों,शिष्यों ने अपने धन या पराक्रम द्वारा उन्मत होकर गुरुजनों का तिरस्कार किया हैं, उनका इसी युग में जीते जी सर्वस्व नष्ट हो जाता है. सहस्रबाहु के भी नष्ट होने कारण यही है राजन.

शौनकजी से यह कथा सुनकर परीक्षित को संतोष हुआ और मन का भ्रम मिटा.

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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