रुद्र किंकर यानी वेताल ने विक्रमादित्य से कहा– राजन ! चूड़ापुर नगर में राजा चूड़ामणि का राज था. उनकी रानी विशालाक्षी बड़ी पतिव्रता स्त्री थीं किंतु रानी संतानहीन थीं इसलिए दुखी रहती थीं. रानी ने भगवान शंकर की आराधना की.

महादेव की कृपा से उनकी कामना पूरी हुई और ऋकामदेव के समान एक सुंदर बालक हुआ. बालक को देख कर लगता था कि इसमें देवताओं का अंश समाया है. उसका नाम रखा गया हरिस्वामी.

राजा को धन वैभव की क्या कमी! इन सबका उपभोग कर हरिस्वामी पृथ्वी पर देवता के समान सुख भोग रहा था. देवल मुनि के शाप से शापित एक अप्सरा ने धरती पर स्त्री रूप में जन्म लिया. उसका नाम रूपलावण्यि था.

उसी अप्सरा से राजकुमार हरिस्वामी का विवाह हुआ. एक रात हरिस्वामी की पत्नी अपने भवन में सो रही थी. तभी सुकल नामक गंधर्व वहां आया. वह रूपलावण्यि पर मोहित हो गया और उसने सोती हुई रानी का अपहरण कर लिया.

जब हरिस्वामी उठा तो अपनी पत्नी को ढूंढने लगा. राजमहल की सुरक्षा के बीच वह कहां गयी. उसके न मिलने पर वह व्याकुल हो मानसिक अशांत हो गया. हरिस्वामी पत्नी के वियोग में नगर छोडकर जंगल में चला गया.

सभी सुख सुविधा त्यागकर श्रीहरि के ध्यान में लीन हो गया. वह संन्यासी होकर भीख मांगने लगा. एक दिन संन्यासी बन चुका हरिस्वामी भिक्षा मांगने के लिए एक ब्राह्मण के घर आया. ब्राह्मण ने सन्यासी के सेवा में खीर प्रस्तुत की.

हरिस्वामी ने सोचा पहले नहा लूं फिर खीर ग्रहण करुंगा. सो खीर को लेकर वह स्नान करने नदी तट पर चला आया. खीर भरा लोटा उसने वहीं बरगद के पेड़ पर रखकर नदी में नहाने चला गया.

पेड़ के कोटर में एक सांप रहता था. उसने खीर में विष उगल दिया. सन्यासी हरिस्वामी स्नानकर लौटा और खीर खाई. कुछ ही कौर के बाद विष के प्रभाव से हरिस्वामी को मूर्च्छा आने लगी.

हरिस्वामी उसी अवस्था में उस ब्राह्मण के घर तक पहुंचा और ब्राह्मण से बोला ,– ‘अरे दुष्ट ब्राह्मण ! तुम्हारे द्वारा दिये गये विष मिले हुए खीर को खाकर अब मैं तो मर रहा हूँ लेकिन इस अपराध में तुम्हें भी ब्रह्म हत्या का पाप अवश्य लगेगा.

संन्यासी बने पत्नी वियोगी हरिस्वामी ने ब्राह्मण को बहुत बुरा भला कहा और यह चेतावनी देकर मर गया. जंगल में श्री हरि की मन से की गयी आराधना फलीभूत हुई और हरिस्वामी तपस्या के प्रभाव से शिवलोक चला गया.

अब वेताल बने रुद्र किंकर ने विक्रमादित्य से प्रश्न किया – राजन ! ब्राह्मण ने खीर दिया और सर्प ने उसे विषमय किया जिससे सन्यासी मरा अब इनमें ब्रह्महत्या का पाप किसको लगेगा? यह मुझे बताओ.

राजा ने विस्तार से उत्तर दिया– विषधर नाग ने अज्ञानवश उस खीर में विष उगला. यह तो सर्प का स्वाभाविक कर्म है, उसने जान बूझ कर किसी उद्देश्य विशेष से खीर में विष नहीं मिलाया. अत: ब्रह्महत्या का पाप उसे नहीं लगेगा.

संन्यासी हरिस्वामी भूखा था. भिक्षा मांगने ब्राह्मण के घर आया था, इसलिए वह ब्राह्मण के लिये अतिथि था. अतिथि देव-स्वरुप होते हैं अत: अतिथिधर्म का पालन करना, श्रध्दा से खीर बनाकर देना तो उसके कुल-धर्म के अनुकूल ही था.

अतिथि का अपमान भी ब्रह्महत्या के समान ही है. वह विष मिलाकर अन्न देता, तभी ब्रह्महत्या उसे लगती. पर ऐसा तो उसने किया नहीं फिर ऐसे में वह कैसे ब्रह्म हत्या का भागी बन सकता है? ब्राह्मण को ब्रह्म हत्या नहीं लगेगी.

बाकी बच गया संन्यासी हरिस्वामी. अपने किए गए शुभ अशुभ कर्मों का फल सब को अवश्य भोगना पड़ता है. हरिस्वामी की यह अकाल मृत्यु उसके जनम जन्मांतर में किये गये कर्मों कुकर्मों का ही फल रहा होगा. हरिस्वामी के मरने का कारण उसका खीर खाना तो एक बहाना था.

अत: उसे भी ब्रह्म हत्या नहीं लगेगी. उसकी मृत्यु स्वाभाविक रूप से ही हुई है, यह उसके कर्मों का कुफल था, किसी का दोष नहीं. इस प्रकार इन तीनों में किसी को भी ब्रह्म हत्या नहीं लगेगी. क्यों कि किए गये कर्मों का फल सभी को अवश्य भोगना पड़ता है.

(भविष्य पुराण प्रतिसर्गपर्व द्वितीयखंड का पंचम अध्याय )

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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