महाराजा कृतवीर्य और रानी पद्मिनी ने गंधमादन पर्वत पर पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करके भगवान विष्णु को प्रसन्न कर एक वीर पुत्र का आशीर्वाद मांगा. श्रीहरि के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र हुआ जिसका नाम अर्जुन रखा गया.
भगवान विष्णु के आशीर्वाद से अर्जुन महान बल और शक्ति से परिपूर्ण थे. अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अर्जुन ने नर्मदा किनारे स्थित माहिष्मतीपुरी का राजपाट संभाला.
अर्जुन ने कठिन तपस्या से ब्रम्हाजी को प्रसन्न कर सहस्त्र हाथों का आशीर्वाद पाया था. हजार हाथों के कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन नाम से पुकारा जाने लगा. अपने पराक्रम से सहस्त्रार्जुन ने सातों द्वीपों पर एकछत्र राज्य कायम किया.
समस्त भूमंडल कार्तवीर्य के अधीन था. उसने श्रीहरि के अंशावतार दत्तात्रेयजी को अपना गुरू बनाया और धोर सेवा तथा तप से भगवान दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया.
भगवान दत्तात्रेय ने अर्जुन को योगविद्या, अणिमा और लघिमा जैसी दुर्लभ सिद्धियां प्रदान कर दीं. संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ, दान, तपस्या, योग, शास्त्र और पराक्रम में अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकता था.
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी 500 रानियों के साथ नर्मदा नदी में जलविहार के लिए गए. नर्मदा में उस समय पानी कम था. जो पानी था वह नीचे की ओर प्रवाहित हो रहा था. रानियों के जलक्रीडा में असुविधा हुई.
कार्तवीर्य ने अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा का पानी रोककर उसकी दिशा बदल दी. नर्मदा के ही किनारे एक स्थान पर लंकापति रावण शिवलिंग बनाकर शिवजी की पूजा कर रहा था.
नर्मदा के प्रवाह में आए बदलाव से उशकी पूजा भंग हो गई. लंका से लाए गए पूजा के पुष्ट आदि जल में समा गए. इससे रावण को भयंकर क्रोध आया. वह तत्काल देखने पहुंचा कि आखिर नर्मदा ने ऐसी धृष्टता कैसे की.
नर्मदा ने कहा कि यह सब कार्तवीर्य अर्जुन के कारण हुआ है. रावण को भी अपने बल का बड़ा अभिमान था. वह सहस़्त्रार्जुन की शक्तियों से परिचित नहीं था. इसलिए उसने सहस्त्रार्जुन को बुरा-भला कहना शुरू कर दिया.
पत्नियों के समक्ष हो रहे इस अपमान से सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो गया. उसने रावण को चेतावनी दी- ब्राह्मण समझकर मैं तुम्हें दंड नहीं दे रहा किंतु यदि अब सहनशीलता खत्म हो चुकी है. यदि एक शब्द भी और कहे तो दंड मिलेगा.
रावण तो स्वयं ही बड़ा अभिमानी था. उसने राक्षस सेना के साथ सहस्त्रबाहु को युद्ध के लिए ललकार दिया. उसी स्थान पर युद्ध आरंभ हो गया. दोनों की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ. सहस्त्रार्जुन स्वयं रावण से युद्ध कर रहे थे.
सहस्त्रार्जुन ने रावण को परास्त कर दिया किंतु ब्राह्मण होने के कारण उसका वध नहीं किया बल्कि एक खंभे से बांधकर अपने बंदीगृह में रख दिया. लंकानगरी राजाविहीन हो गई.
रावण के भाई और अन्य रिश्तेदार उसके दादा पुलस्त्य मुनि के पास पहुंचे और उन्हें सारी बात बताई. उन्होंने पुलस्त्य से रावण की रक्षा करने की विनती की. पुलस्त्य मान गए.
वह सहस्त्रार्जुन की नगरी माहिष्मती जा पहुंचे. सहस्त्रार्जुन ने पुलस्त्य का बहुत आवभगत किया और पूरे आतिथ्य के बाद उनके आने का कारण पूछा.
पुलस्त्य ने कहा कि वह दान मांगने आए हैं. सहस्त्रार्जुन उन्हें अपना सर्वस्व दान देने को तैयार हो गए. पुलस्त्य ने कहा कि जिन ब्रह्माजी के कारण वह शक्तिशाली है उनके विधान में हस्तक्षेप न करें.
उनके पौत्र रावण के लिए ब्रह्माजी ने कुछ और तय किया है. इसलिए वह रावण को तत्काल मुक्त कर दे. पुलस्त्य ने उनसे रावण को दान में मांग लिया. सहस्त्रार्जुन ने तुरंत ही रावण को कारागार से मुक्त कर दिया.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश