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जय-विजय दोनों भाई ब्रह्माजी के अधीनस्थ देवदूत थे. एक बार विधाता ब्रह्माजी ने उन्हें आदेश दिया कि तुम दोनों पृथ्वी पर जाओ और किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढकर लाओ जिसके धर्म-कर्म ऐसे हों कि उसे सीधे स्वर्ग में प्रवेश दिया जा सके.

जय-विजय स्वर्ग भोगने के अधिकारी ढूंढने धरती पर आए. घोर तपस्वियों से मिले और कठोर साधना का कारण पूछा तो तरह-तरह के उत्तर मिले जिनकी उन्हें आशा न थी.

कोई कहता कि मैं तप इसलिए करता हूं ताकि जीवन में धन और सम्मान बना रहे. कोई बताता कि मरने के बाद सद्गति और स्वर्ग केलिए तप कर रहा है.

किसी के अनुसार यह संसार आज है कल नहीं होगा. हम यह साधना इसलिए कर रहे है कि मुक्ति मिल जाए. किसी का विचार था कि जाने अनजाने हुए पाप की शुद्धि के लिए साधना करते हैं.

तप के लिए भांति-भांति के विचार सुनकर जय-विजय भ्रम में पड गए. उन्होंने अपनी देव बुद्धि का प्रयोग किया तो पाया के सभी की कथनी और करनी में भी अंतर है.

इन साधकों से मिलने के बाद वे आगे बढ़े. रात घिरने लगी थी. रास्ता ऊबड़-खाबड़ और कीचड भरा था. पर अचानक उन्हें कुछ जगहों पर जलते हुए दीपक रखे मिले. इस खराब रास्ते के किनारे एक बूढा आदमी बैठ हुआ था.
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