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गौतम बुद्ध एक बार किसी प्रदेश की यात्रा पर थे. रास्ते में स्थान-स्थान पर उनसे मिलने और आशीर्वाद लेने के लिए लोग आते. कुछ उनके दर्शन करके संतुष्ट हो जाते तो कुछ अपनी समस्याएं भी रखते थे.

बुद्ध किसी को निराश नहीं करते थे. वह सबकी परेशानियों को सुनते और उचित समाधान का प्रयास भी करते थे.

एक दिन एक व्यक्ति महात्मा बुद्ध के पास आया और उनसे अपनी परेशानी सुनकर उसका निदान करने का अनुरोध किया. बुद्ध चलते-चलते उसकी बात सुनने को तैयार हुए.

उस व्यक्ति ने कहना शुरू किया- प्रभु मैं एक विचित्र तरह के वैचारिक द्वंद्व से गुजर रहा हूं. मैं लोगों को तो खूब प्यार-स्नेह करता हूं पर मुझे बदले में कुछ नहीं मिलता.

जब मैं किसी के प्रति स्नेह रखता हूं, स्नेह प्रदर्शित करता हूं तो मैं भी यह अपेक्षा तो करूंगा ही कि मुझे भी बदले में स्नेह या संतुष्टि मिले लेकिन मुझे ऐसा कुछ नहीं मिलता. प्रभु मेरा जीवन स्नेह से वंचित है.

बुद्ध के साथ-साथ चलते हुए वह व्यक्ति कहता रहा और बुद्ध ध्यान से सुनते और स्वभाव अनुसार मुस्कुराते भी रहे. उस व्यक्ति ने अपनी परेशानी कहनी जारी रखी.

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