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यमराज उसे ले गये इन्द्र के पास। इन्द्र ने कहा- “पुण्य का फल तो भुगतवाया जाता है, दिखाया नहीं जाता।” सेठ बोलाः “नहीं सत्संग के पुण्य का फल मैं भोगना नहीं चाहता, सिर्फ देखना चाहता हूँ।”
इन्द्र भी उलझन में पड़ गये। चित्रगुप्त, यमराज और इन्द्र तीनों सेठ को ले गये भगवान आदि नारायण के समक्ष। इन्द्र ने पूरा वर्णन किया। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। तीनों से बोले- “ठीक है. जाओ, अपना-अपना काम सँभालो।”
सेठ को सामने खड़ा रहने दिया। सेठ बोला- “प्रभो ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है।” प्रभु बोले- “चित्रगुप्त, यमराज और इन्द्र जैसे देव आदरसहित तुझे यहाँ ले आये और तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना है?”
“एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध। तुलसी सत्संग साध की, हरे कोटि अपराध।।” जो चार कदम चलकर श्रीरामजी के सत्संग में जाता है, तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की।
सत्संग-श्रवण की महिमा इतनी महान है. सत्संग सुनने से पाप-ताप कम हो जाते हैं। पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है। बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं।
तुलसीदास जी को जब पत्नी ने ताना मरा, तब उनका वैराग्य जग आया। वे भगवान से प्रार्थना करने लगे- “हे प्रभो ! मैं तेरा भक्त बनने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि मैं कुटिल हूँ, कामी हूँ, खल हूँ. मैं तेरे भक्त का सेवक ही बन जाऊं।
सेवक भी न बन पाऊँ तो भक्त के घर की गाय ही बना देना स्वामी ! तेरे सेवक तक मेरा दूध पहुँचेगा तब भी मेरा कल्याण हो जाएगा। गाय बनने की योग्यता भी नहीं हो तो तेरे भक्त के घर का घोड़ा बनूँ।
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